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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ एव वृक्षादिः तस्य स्व-पराभ्यां सन्निहितस्यान्यथाप्रतीतेः। असदेतत्- यतः स्व-पराभ्यामसौ संनिहितः प्रतीयमानः साकारेण वा ज्ञानेन प्रतीयते निराकारेण वा ? यदि साकारेण इति पक्षस्तदाऽसावपि ज्ञानाकार एव, न बाह्योऽर्थ इति क्वचिदपि अर्थाऽसिद्धरसिद्धो दृष्टान्तः । तथा च प्रतिबन्धाऽप्रसिद्धेर्न ज्ञानाकाराद्
बाह्यार्थसिद्धिः। अथ निराकारेण तेन अर्थः स्व-पराभ्यां प्रतीयते इति प्रतिबन्धसिद्धिरभ्युपगम्यते पिण्डाद्याकारस्य 5 बाह्यार्थेन सह। नन्वेवं निराकारं ज्ञानं बाह्यार्थग्राहकं सिद्धमिति व्यर्थं ज्ञानाकारकल्पनम् । न च तत्रापि प्रतिभासमानो वृक्षो ज्ञानाकार एवेत्यपरमर्थं साधयति, तत्राप्यपरापरार्थकल्पनायामनवस्थाप्रसंगात् कुतोऽर्थसिद्धिः ?
प्रतिभासमान पिण्डाद्याकारवत् स्तम्भादिबावार्थसिद्धि* ___ यदि यह कहा जाय- अर्थापत्ति से बाह्यार्थसिद्धि अशक्य नहीं है - देखिये, बाह्यार्थ वृक्षादि के
न होने पर, दूर रहे हुए वृक्षादि के बारे में एक घनीभूत - पिण्डीभूत विशालाकार जो दीखता है 10 वह दर्शनगोचर ही नहीं हो सकता। इसी तरह समझ लो कि स्तम्भादि बाह्य अर्थ न होने पर,
संमुखवर्ती स्तम्भादि के बारे में जो घन-लम्बाकार दिखता है वह प्रतीतिगोचर नहीं हो सकेगा। इस प्रकार अर्थापत्ति से बाह्य स्तम्भादि अर्थ की सिद्धि सरल है। ऐसा मत कहना कि वृक्षादि के बारे में पिण्डादिआकार ही वृक्षादि है क्योंकि पहले दूर से देखनेवाला जब स्वयं निकट पहुँच जाता है,
अथवा अन्य व्यक्ति जो पहले से वहाँ संनिहित (= निकटवर्ती) होता है, तब उन दोनों को वह 15 पिण्डादिआकार से नहीं किन्तु वृक्षादिरूप से ही प्रतीत होता है।
साकार ज्ञान से बाह्यार्थ की असिद्धि* - तो यह ठीक नहीं है। कारण, यहाँ दो विकल्प असंगत हैं - स्वयं को या पर को संनिहित वृक्षादि साकार ज्ञान से प्रतीत होता है या निराकार ज्ञान से ? यदि पहले पक्ष में साकार ज्ञान
से प्रतीति को मान लिया जाय तो उस में अपने आकार की ही प्रतीति फलित हुई, बाह्यार्थ की 20 प्रतीति नहीं, अत वह वृक्षादि ज्ञानाकार ही है न कि बाह्य रूप। सारांश, इस पक्ष में कहीं भी
बाह्य अर्थ सिद्ध नहीं होता तब वृक्षादि या स्तम्भादि का दृष्टान्त भी असिद्ध बन जाता है। यदि दूसरे पक्ष में, निराकार ज्ञान से स्व या पर को वृक्षादि अर्थ की प्रतीति मानी जाय तो पिण्डादिआकार की बाह्यार्थ के साथ व्याप्ति सिद्ध हो सकेगी। किन्तु इस से तो यही सार निकलेगा कि निराकार
ज्ञान ही बाह्यार्थ का ग्राहक है। अब ज्ञान साकार होने की कल्पना करना निरर्थक है। 25 साकारवादी :- यहाँ भासता हुआ जो वृक्ष है वह बाह्य वृक्ष नहीं किन्तु वृक्षाकार ज्ञान ही उस
में भासित होता है। ज्ञान के उस वक्षाकार से ही ज्ञानभिन्न बाह्य वक्ष की सिद्धि होगी. न ज्ञान से।
* निराकार ज्ञान से ही बाह्यार्थ सिद्धि * निराकारवादी :- ज्ञानभिन्न बाह्यवृक्ष की सिद्धि भी ज्ञानाकार रूप ही क्यों न कही जाय ? मतलब 30 कि सिद्धस्वरूप ज्ञानाकार से अन्य एक बाह्य वृक्ष की सिद्धि होगी, वह सिद्धि भी ज्ञानरूप होने से
ज्ञानाकार ही है अतः उस से अन्य एक बाह्य वृक्ष की सिद्धि..... इस तरह अन्य अन्य अर्थ की सिद्धि में अनवस्था दोष प्रसक्त होने से किसी भी अर्थ की सिद्धि नहीं होगी। यदि कहें कि ज्ञानाकार
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