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खण्ड-४, गाथा-१
३५१ इति तत्र वचनात् । यत उन्नतत्वादिधर्मविशष्टा मेघाः कारणम् तथाविधकारणधर्मेण भविष्यदृष्ट्युत्पादकत्वं धर्मो यदाऽनुमीयते तदा वृष्टेरनुमानात्, कारणात् कार्यानुमानमित्युपदिश्यते। अथोन्नतत्वादिधर्मयुक्तानामपि मेघानां वृष्ट्यजनकत्वदर्शनात् कथमैकान्तिकं कारणात् कार्यानुमानम् ? न, विशिष्टस्योन्नतत्वादेर्धर्मस्य गमकत्वेन विवक्षितत्वात् । न च तस्य विशेषो नाऽसर्वज्ञेन निश्चेतुं पार्यत इति वक्तुं शक्यम्, सर्वानुमानोच्छेदप्रसक्तेः।
तथाहि - मशकादिव्यावृत्तधूमादीनामपि स्वसाध्याऽव्यभिचारित्वमसर्वविदा न निश्चेतुं शक्यमिति वक्तुं 5 शक्यत एव । अथ 'सुविवेचितं कार्यं कारणं न व्यभिचरति' ( ) इति न्यायाद् धूमादेर्गमकत्वम् तमुत्रापि तुल्यम्। यो हि भविष्यवृष्ट्यव्यभिचारिणमुन्नतत्वादिविशेषमवगन्तुं समर्थः स एव तस्मात्तामनुमिनोति नाऽगृहीतविशेषः । तदुक्तम्- ‘अनुमातुरयमपराधो नाऽनुमानस्य' (वा.भाष्य-२-१-३८)। तथा सूत्रकारेणाऽप्यभ्यधायि- 'नैकदेशवाससादृश्येभ्योऽर्थान्तरभावात्' (न्या.सू.२-१-३८)। अत एव 'गम्भीरध्वानवत्त्वे कहा है – 'कारण से कार्य का अनुमान होता है' - (जैसे मेघ की उन्नति से भावि मेघवृष्टि।)' 10 इस वचन के बल से यह उपदेश करना उचित ही है कि - उन्नतत्वादि धर्म से विशिष्ट मेघादि 'कारण' है, उस कारण के धर्मभूत उन्नतत्वादि धर्म के द्वारा भाविवृष्टिकारकत्व धर्म का जब अनुमान किया जाता है तब वृष्टि के अनुमान के बल पर, कारण से कार्य का अनुमान फलित होता है।
प्रश्न :- यहाँ एकान्ततः कारण से कार्य का अनुमान कैसे शक्य है जब कि कभी कभी उन्नतत्वादिधर्मविशष्ट मेघों के रहते हुए भी वृष्टि की उत्पत्ति नहीं होती ऐसा दीखता है ? 15
उत्तर :- नहीं, विशिष्ट प्रकार के उन्नतत्वादि धर्म को (निमित्त शास्त्रो में) वृष्टि का ज्ञापक माना गया है। ___असर्वज्ञ पुरुष मेघोन्नति की विशिष्टता का निश्चय कैसे कर पायेगा ? ऐसा पूछना व्यर्थ है क्योंकि तब तो सभी अनुमानों में हेतु के लिये ऐसे प्रश्न उत्थित किये जाने पर अनुमान मात्र के उच्छेद का अतिप्रसङ्ग हो सकता है।
[अनमान के उच्छेद की विपदा का स्पष्टीकरण 1 कैसे यह देख लो – 'यह तो धूम ही है न कि मशकादिवृन्द इस तरह धूमादि की स्पष्ट प्रमा होने पर भी वह अपने साध्य (अग्नि आदि) का व्यभिचारी है या अव्यभिचारी- ऐसा निर्णय सर्वज्ञ के विना कौन कर सकता है ? (क्योंकि सर्व धूमों के साथ सर्वत्र अग्निसत्ता को तो सर्वज्ञ ही देख सकता है।) इस प्रकार कोई भी कह सकता है। यदि कहें (अन्वय-व्यतिरेक द्वारा अग्नि 25 के साथ पूर्वदृष्ट ऐसा) सुविवेचित (धूमादि) कार्य कभी भी अपने (अग्निरूप) कारण का व्यभिचारी नहीं होता।' इस न्याय के बल पर धूम अग्नि का बोधक क्यों नहीं होगा ?' - तो फिर ऐसा ही कथन - ‘सुविवेचित उन्नतत्वादिविशिष्ट मेघ भावि वृष्टि का बोधक क्यों नहीं होगा ?' हम भी तुल्यरूप से कह सकते हैं। हम भी कहते हैं कि भावि वृष्टि का अव्यभिचारी ऐसे उन्नतत्वादि विशेष को पहचान लेने में जो काबिल होगा वही उस विशेष के बल पर भावि वृष्टि का अनुमान कर 30 लेगा। जिसने उस विशेष को नहीं पहचाना वह नहीं करेगा। वा. भाष्य में कहा है - 'वह अनुमानकर्ता का अपराध है न कि अनुमान का।' तथा न्यायसूत्रकारने भी कहा है – नहीं, (अनुमान मिथ्या नहीं।)
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