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________________ ३५२ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - २ सति' (न्या.वा.१-१-५) इत्याद्युन्नतत्वादेर्वार्त्तिककृता विशेषो दर्शितः । न चैवं साध्य - साधनभावे कार्यसत्तायाः साध्यत्वं येन भावाभावोभयधर्मस्या हेतुत्वमिति दोषः स्यात् । वैयधिकरण्यमपि प्रदर्शितप्रयोगे परिहृतमेव । यच्च अप्रतिबद्धसामर्थ्यस्य कारणस्य हेतुत्वे कार्यप्रत्यक्षतालक्षणं दूषणमभिहितम् - ( ३४९-८) तदसंगतमेव व्यवधानसम्भवात् । तथाहि - निष्पाद्ये पटे अनुत्पन्नावयवक्रियस्यान्त्यतन्तोर्यदा क्रियातो विभागः तदाऽ विना5 भावसम्बन्धस्मृतिर्विभागात् पूर्वसंयोगविनाशः तन्त्वन्तरेण च संयोगोत्पत्तिर्यदैव तदैवाऽविनाभावसम्बन्धस्मरणात् परामर्शज्ञानम्, यदा संयोगात् कार्योत्पादस्तदैव परामर्शविशिष्टाल्लिङ्गात् 'भविष्यति कार्यम्' इत्यनुमेयप्रतिपत्तिः । न चोत्पादकाल एव कार्यस्य प्रत्यक्षता, तत्र तदा रूपाद्यभावात् । न च रूपादिभिः सहोत्पादस्तदधिकरणानाम्, एकदेश, त्रास और सादृश्य से सिद्धान्ती के दिये हुए हेतु भिन्न होने से। 4 अत एव वार्त्तिककार ने भी (विशेष सिर्फ सर्वज्ञगोचर ही है ऐसा न मानते हुए) सूत्र १-१-५ 10 की व्याख्या में गम्भीरध्वनिवाला हो ( अनेक बगुले चक्कर मारते हैं) इत्यादि कहते हुए उन्नतत्वादि विशेष को प्रदर्शित किया ही है । उपरोक्त प्रकार से मेघादि में वृष्टिकारकत्व को साध्य कर के विशिष्ट उन्नतत्वादि को साधन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ कार्यसत्ता हमारा साध्य ही नहीं है । अत एव हेतु के भावधर्म-अभावधर्म - उभयधर्म ऐसे तीन विकल्पों द्वारा उस के हेतुत्व का निरसन किया गया था ( ३४९-२० ) वह व्यर्थ है । पहले जो कहा है कि 'कारण से कार्य होने का सिद्ध किये जाते वक्त हेतु 15 व्यधिकरण हो जायेगा' इस दोष का भी परिहार उपरोक्त अनुमानप्रयोग के द्वारा अनायास हो जाता है। [ कारणदर्शनकाल में कार्योत्पत्ति प्रत्यक्षापत्तिनिरसन ] पहले (३५०-१०) जो दोष कहा था कि 'दृढप्रतिबद्ध सामर्थ्यवाले कारण को हेतु करने पर, उस कारण के दर्शनकाल में कार्य की भी झटिति उत्पत्ति हो जाने से उस का प्रत्यक्ष ही हो जायेगा, फिर व्याप्तिस्मरण व्यर्थ बन जायेगा...' वह भी असत् है क्योंकि बीच में कालादि का व्यवधान सावकाश 20 होने से कारणदर्शनकाल में कार्य की उत्पत्ति का कथन गलत है । कैसे यह देखिये - जब एक वस्त्र उत्पन्न होने वाला है और शेष अवयवभूत तन्तुओं निष्क्रिय रहे एवं अन्तिम तन्तु में क्रिया उत्पन्न होगी तब क्रिया से पहले तो पूर्वसंयोगनाशक विभाग उत्पन्न होगा । उस के बाद अविनाभावसम्बन्ध का स्मरण एवं विभाग जन्य पूर्वसंयोगनाश तथा अन्य तन्तुओं से संयोग तीनों की एक साथ उत्पत्ति होगी। तथा उस वक्त ही अविनाभावसम्बन्ध के स्मरण से परामर्शज्ञान भी हो जायेगा । दूसरी ओर 25 उक्त संयोग से कार्य भी उत्पन्न होगा । उसी वक्त परामर्शयुक्त लिंग से 'कार्य निपजेगा' इस प्रकार अनुमेय ( कार्य ) की ( जब कि इस समय वह उत्पन्न नहीं हुआ अत एव उस के प्रत्यक्ष का संभव नहीं तब ) प्रतिपत्ति होगी । इस को कहेंगे कारण से कार्य का अनुमान । 4. सूत्र का तात्पर्य यह है कि सभी अनुमान को मिथ्या नहीं कह सकते। अनुमान को मिथ्या (यानी व्यभिचारी) दिखाने चींटीयों का स्थान परिवर्तन, एवं मयूरघोष इस के सामने सिद्धान्ती का कहना है कि वैलक्षण्य हैं एकदेश नदीवृद्धि नहीं किन्तु कारण नहीं किन्तु सहजरूप से अण्डे लेकर चींटीयों का स्थान परिवर्त्तन, एवं अव्यभिचारी होने से अनुमान प्रमाणभूत हो सकता है । इति । के लिये जो तीन बात है कि एकदेश में नदी वृद्धि, त्रास के कारण कुछ सदृश किसी के नकली घोष के द्वारा मेघवृष्टि की सिद्धि नहीं हो सकती हमारा हेतु इन नकली तीन बातों से विलक्षण (अर्थान्तर ) है । वे ये तीन पूर्णरूप से नदी की विलक्षणवृद्धि, त्रास के मयूर का असली शब्द । हमारे ये तीन हेतु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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