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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ विवक्षितकार्योत्पादने - इत्येवं तत्स्वभावहेतुप्रभवम्। तदुक्तम् (फ्रवा० ३-७) -
हेतुना यः समग्रेण कार्योत्पादोऽनुमीयते। अर्थान्तरानपेक्षत्वात् स स्वभावोऽनुवर्णितः। इति।
असदेतत् - यतो न कार्यस्य धर्मित्वं कारणस्य हेतुत्वमस्माभिः क्रियते येन कार्यस्य सिद्ध्यसिद्धिभ्यामनुमानाऽप्रवृत्तिर्भवेत्, किन्तु कारणस्यैव धर्मित्वं मेघादेः क्रियते, तस्य च सिद्धत्वाद् नाऽऽश्रयासिद्धत्वदोषः। 5 तत्रैव च वृष्ट्युत्पादकत्वं धर्मः साध्यते तद्धर्मेणोन्नतत्वादिना। न च प्रतिज्ञार्थेकदेश: एवं हेतुः, साध्य
साधनयोर्धर्मिधर्मयोर्वा भेदात्। तथाहि- मेघत्वजातियुक्तानां धर्मित्वं भविष्यदृष्ट्युत्पादकत्वमसिद्धमर्थान्तरं ततः साध्यो धर्म उन्नतत्वादिकमपि साधनधर्मः मेघेभ्यो भिन्नम् तेषां द्वैविध्यदर्शनात्, तेन न प्रतिज्ञार्थेकदेशताऽपि। न च साध्य-साधनयोरैक्यम्। न च भाष्यविरोधः 'कारणेन कार्यमनुमीयते' (वा०भा०१-१-५)
नहीं है। किसी विद्वान ने यही कहा है - 'कारण अवश्य कार्ययुक्त हो ऐसा नियम नहीं।' कार्य 10 के साथ अविनाभाव से विकल रहने पर अभिमत कारण कार्य नहीं साध सकता। यदि अप्रतिबद्ध
= दृढनिष्ठायुक्त सामर्थ्ययुक्त कारण से कार्यसिद्धि मानी जाय तब तो अनिष्ट यह होगा कि उक्तसामर्थ्यवाले कारण के दर्शनकाल में ही कार्य झटिति उत्पन्न हो कर प्रत्यक्षदृष्टिगोचर बन जायेगा, फिर अविनाभावस्मरणादि तो बेकार बन जायेंगे। बौद्धोंने जो मान लिया है कि समग्र (सर्वसामर्थ्ययुक्त)
कारण से कार्य का अनुमान हो सकता है - उदा. यह बीजादि सामग्री विवक्षितफल के उत्पादन 15 में योग्य है, जब प्रतिबन्ध की विफलता की कोई शक्यता ही नहीं है। इस प्रकार स्वभावहेतुमूलक
बीजादिस्वभावभूत योग्यता का अनुमान शक्य होने से बौद्ध ऋषियों ने वैसा स्वीकार किया है। प्रमाणार्तिक (३-७) में कहा है - ‘अर्थान्तर की अपेक्षा न रखने के कारण समग्र हेतु से जो कार्योत्पत्ति का अनुमान होता है उसी को स्वभाव (हेतु) कहा गया है।'
(उत्तरपक्ष) :- यह सब निवेदन मिथ्या है। तीन प्रकारवाले अनुमानों में से प्रथम प्रकार के व्याख्यान 20 में ऐसा हमारा प्रयास नहीं है कि हम कार्य में धर्मित्व और कारण में हेतुत्व की सिद्धि करें। -
जिस से कि 'कार्य सिद्ध है या असिद्ध' ऐसे विकल्पों के द्वारा अनुमान की प्रवृत्ति को बाधा पहुँच सके। हम तो वृष्टि के कारणभूत मेघादि को धर्मीतया प्रस्तुत करते हैं जो कि सिद्ध होने से आश्रयासिद्धि दोष को अवकाश ही नहीं रहता। उसी (मेघादि) धर्मी में वृष्टिकारकत्व धर्म, उसी धर्मी के अन्य
धर्मरूप उन्नतता (हेतु) के द्वारा सिद्ध किया जाता है। ऐसा कहना तथ्यविहीन ही है कि यहाँ प्रतिज्ञात 25 अर्थ मेघादि के एकदेश (उन्नतत्वादि) को ही हेतु कैसे किया ? – क्योंकि साध्य वृष्टिकारकत्व और
साधन उन्नतत्वादि में तो भेद ही है। अथवा धर्मी मेघादि और उन्नतत्वादि धर्म में तो भेद ही है। देखिये, यहाँ भेद इस तरह है - मेघत्वजातियुक्त पदार्थों को धर्मी बनाया है, उस से अर्थान्तर यानी भिन्न है भाविवृष्टिकारकत्व धर्म जो असिद्ध है और उस को यहाँ साध्य किया है। उन्नतत्वादि साधनरूप
धर्म है (मेघादि का) जो मेघों से तो भिन्न है एवं वृष्टिकारकत्व से भी भिन्न है। मेघरूप धर्मी 30 और उन्नतत्व धर्म एक (अभिन्न) नहीं है, क्योंकि मेघ तो उन्नत-अनुन्नत दोनों प्रकार के होते हैं।
अत एव यहाँ प्रतिज्ञात अर्थ एकदेशता दोषरूप नहीं है। उक्त ढंग से साध्य-साधन का भी भेद यहाँ सिद्ध है। भाष्य व्याख्या के साथ कोई विरोध भी नहीं है, क्योंकि वात्स्यायन भाष्य में भी यही
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