________________
३४८
सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ विवक्षायां सामान्यतोऽदृष्टमित्येतस्यानभिसम्बन्धात् 'पूर्ववत् – शेषवत्- च'शब्दसमुच्चितरूपद्वयोपेतचतुर्लक्षणलिङ्गप्राप्तेः। व्यतिरेकिविवक्षायां शेषवदित्येतस्यानभिसम्बन्धात् व्यतिरेकि चतुर्लक्षणलिङ्गसंग्रहाद् । अन्वयव्यतिरेकिलिङ्गविवक्षायां समस्तपदाभिसम्बन्धात् पञ्चलक्षणलिङ्गप्राप्तेः।
अन्ये तु त्रिविधग्रहणमतिव्याप्तिनिवृत्त्यर्थमेवाऽन्यथा वर्णयन्ति- त्रिविधं = त्रिप्रकारम् । के पुनस्त्रयः 5 प्रकारा: ? इति विवक्षायां पूर्ववदादिनिर्देशः । तत्र पूर्ववत् = यत्र कारणेन कार्यमनुमीयते। अथापि स्यात् -
पूर्व = कारणं तदस्यास्तीति पूर्ववत् कार्यम् एवं च कार्यात् कारणानुमानं पूर्ववत् प्रसक्तम् न कारणात् समझ लेना)। ऐसे त्रिरूपलिंग के आलम्बनवाला जो तत्पूर्वक होता है वह अनुमान है। सिर्फ 'तत्पूर्वक' इतना लक्षण करने पर जो संस्कारादि में अतिव्याप्ति प्राप्त होती थी वह अब 'त्रिविध' पद के प्रवेश से दूर हो जाती है
[ अबाधितत्व और असत्प्रतिपक्षितत्व का समुच्चय ] अब देखिये - असिद्ध, विरुद्ध और व्यभिचार दोष वाले अनुमान में अतिव्याप्ति का तो त्रिविध (पक्षधर्मादि) कहने से वारण हो गया, किन्तु बाध एवं सत्प्रतिपक्ष में होनेवाली अतिव्याप्ति का वारण कैसे होगा ? - उत्तर :- उन की निवृत्ति के लिये ‘सामान्यतोदृष्टं च' सूत्र में जो 'च'कार पद है
उस से अबाधितत्व एवं असत्प्रतिपक्षत्व इन दोनों रूपों का भी लक्षण में समुच्चय कर लेंगे, तब 15 बाध एवं सत्प्रतिपक्ष में अतिव्याप्ति नहीं रहेगी।
___ तथापि एक अव्याप्ति आशंकित है। त्रिरूप कहने से अन्वय-व्यतिरेकोभयवाले लिंग (अनुमान) का तो संग्रह हो गया किन्तु केवलान्वयि एवं केवलव्यतिरेकी का तो लक्षण से संग्रह नहीं हुआ, अतः उन दोनों में अतिव्याप्ति रहेगी। उत्तर :- नहीं, केवलान्वयिलिंग होगा तब विपक्ष में असत्त्व का (व्यतिरेक
का) सूचक 'सामान्यतो अदृष्ट' पद का सम्बन्ध ग्रहण नहीं करेंगे, सिर्फ चार लक्षण (चार रूप) वाले 20 लिंग का ही स्वीकार करेंगे। मतलब, 'पूर्ववत् शेषवत् च' (सामान्यतोअदृष्ट को छोड दिया) इतने
अंशों को लक्षण में ग्रहण करेंगे, अतः पूर्ववत्, शेषवत् तथा चकार से समुच्चित अबाधितत्व-असत्प्रतिपक्षत्व ऐसे चार रूपवाला लक्षण केवलान्वयि में सुव्याप्त होगा। तथा केवल व्यतिरेकी स्थल में ‘शेषवत्' को लक्षण में से छोड देंगे, अतः ‘पूर्ववत्-सामान्यतो अदृष्ट' एवं, चकारसमुच्चित दो रूप-मिला कर
चाररूपवाले लक्षण की केवलव्यतिरेकी में अव्याप्ति नहीं होगी। अन्वयव्यतिरेकीउभय लिंग में तो सभी 25 पदों को (चकार सहित) लक्षणान्तर्गत कर लेने से न्यायदर्शन में पंचरूपवाले हेतु की प्राप्ति सुकर बनी रहेगी।
[ 'त्रिविध' पद की अन्यप्रकार से व्याख्या - अन्य मत ] कुछ अन्य विद्वान् अव्याप्ति-अतिव्याप्ति के निवारणार्थ 'त्रिविध' पदप्रयोग का व्याख्यान अन्यस्वरूप से करते हैं - 30 त्रिविध यानी त्रिप्रकार, कौन से तीन प्रकार ऐसी जिज्ञासा के उत्तर में पूर्ववत् आदि तीन का
निर्देश है। उन में पहले पूर्ववत् का मतलब है कि जिस (अनुमान) में कारण से कार्य का अनुमान होता है।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org