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________________ ३४७ खण्ड-४, गाथा-१ स्वभावादिविषयप्रतिषेधेन तद्ग्रहणस्य पूर्ववदादिविषयज्ञापनार्थत्वात् । पूर्ववदायेव त्रिविधविभागेन विवक्षितम् न स्वभावादिकम्। अपरे तु 'तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानम्' इत्येतावदनुमानलक्षणमाचक्षते । अत्र च ‘अनुमानम्' इति लक्ष्यम् 'तत्पूर्वकं त्रिविधम्' इति लक्षणम्। 'तत्पूर्वकमनुमान'मित्यभिधीयमाने संस्कार-स्मृति-शाब्द-विपर्ययसंशयोपमानादिषु प्रसङ्गः, तन्निवृत्त्यर्थं 'त्रिविध-पदोपादानम्। त्रिविधमिति त्रिरूपम्, त्रीणि च रूपाणि 5 पक्षधर्मान्वयव्यतिरेकलक्षणानि गृह्यन्ते पूर्ववदादिश्रुतेः। 'पूर्वमुपादीयमानत्वात् कथात्रयेऽपि- पूर्वः = पक्षः सोऽस्यास्तीति पूर्ववत्' – पक्षधर्मत्वम् । शेषः = उपयुक्तादन्यत्वात् साधर्म्यदृष्टान्तः, तस्मिन् विद्यते इति शेषवत्- सपक्षे सत्त्वम् । सामान्यतोऽदृष्टमिति विपक्षे मनागपि यन्न दृष्टम् ‘विपक्षे सर्वत्राऽसत्त्वम्' तृतीयं रूपम्- एतद्रूपलिङ्गालम्बनं यत् - तत्पूर्वकं तदनुमानमित्युच्यमाने संस्कारादौ नातिप्रसङ्गः । तथाप्यतिव्याप्तिर्बाधित-सत्प्रतिपक्षेषु, तन्निवृत्त्यर्थं सामान्यतोदृष्टं च - इति 'च' शब्दोऽबाधितविषयत्वअसत्प्रति- 10 पक्षत्वरूपद्वयसमुच्चयार्थः। तथाप्यव्याप्तिः, अन्वय-व्यतिरेकिलिङ्गालम्बनयोरसंग्रहात्। न, अन्वयिलिङ्गहोने के कारण क्यों व्यर्थता दोष नहीं होगा ? उत्तर :- नहीं, बौद्ध मतानुसार हेतु के स्वभाव-कार्य-अनुपलब्धिरूप तीन विषयों का प्रतिषेध करने के लिये 'पूर्ववद्' आदि का ग्रहण, अनुमान के पूर्ववत् आदि विषयों के सूचन करने से सार्थक ही है। तात्पर्य, 'त्रिविध' ऐसे विभाग के द्वारा पूर्ववत् आदि ही यहाँ विवक्षित हैं न कि स्वभावादि। 15 [अन्य विद्वानों की ओर से अनुमानसूत्र की व्याख्या ] सूत्र की व्याख्या कुछ विद्वान अन्य प्रकार से करते हैं – अनुमान का लक्षण – 'तत्पूर्वक त्रिविध अनुमान' इतना ही मानों। इस में 'अनुमान' पद लक्ष्यवाचक है, 'तत्पूर्वक त्रिविध' यह लक्षण है। सिर्फ 'तत्पूर्वक' इतना ही अनुमानलक्षण मानने पर संस्कार-स्मृति-शाब्दबोध-भ्रम-संशय-उपमान आदि सब प्रत्यक्षमूलक होने से उन में अतिव्याप्ति का प्रसङ्ग होगा, उन के वारणार्थ 'त्रिविध' पद का ग्रहण 20 किया है। त्रिविध यानी त्रिरूप। त्रिरूप-पद से पक्षधर्म, अन्वय और व्यतिरेक ये तीन रूप विवक्षित हैं, क्योंकि सूत्रकार ने पूर्ववत् आदि तीन प्रकारों से इन्हीं का निर्देश किया हुआ है। कैसे यह देखियेकथा के जो वाद-जल्यवितण्डा ये तीन भेद हैं - तीनों में सब से 'पूर्व' यानी पहले जिस का उल्लेख किया जाता है, 'पूर्व' यानी पक्ष (जिस का सर्वप्रथम उल्लेख किया जाता है) - ऐसा पूर्व है जिस 25 अनुमान का - वह 'पूर्ववत्'। पूर्वशब्द से मतुप् प्रत्यय कर के 'पूर्ववत्' शब्द बना है। फलितार्थ हुआ पक्षधर्मत्व, क्योंकि कथा में पहले पक्षधर्म का निर्देश होता है। अन्वय का मतलब है सपक्ष में हेतु का सत्त्व, ‘शेषवत्' पद से इसी का उल्लेख है। ‘शेष' का मतलब है उपयुक्त (पक्ष) से जो शेष यानी (सधर्मा), यानी सपक्ष, अर्थात् साधर्म्य दृष्टान्त यानी अन्वय। शेष में (सपक्ष मे) रहने वाला (हेतु) यानी शेषवत् । (यहाँ भी ‘शेषो अस्ति अस्य इति मतुप्' समझ लेना ।) तीसरा रूप है 30 विपक्ष में असत्त्व यानी व्यतिरेक। इस का उल्लेख सामान्यतोऽदृष्ट-पद से किया है। सामान्यतो यानी तलमात्र भी जो विपक्ष में नहीं देखा गया (अदृष्ट) वह है सामान्यतो अदृष्ट। (अवग्रह '5' का प्रक्षेप Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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