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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - २
भवेत् । तथा च विशष्टज्ञानमेवानुमानं प्रसज्यत इत्यव्याप्तिर्लक्षणदोषः ।
न च तस्यैवानुमानत्वम् ‘स्मृत्यनुमानागम- संशय-प्रतिभास्वप्नज्ञानोहाः सुखादिप्रत्यक्षमिच्छादयश्च मनसो लिङ्गानि ' ( वा. भा. १-१-१६) इति वचनात् सर्वस्य विशिष्टफलजनकस्याऽनुमानत्वात् । तथापि स्वरूपविशेषणवादिनामेषामनुमानत्वं न प्राप्नोति अव्यभिचारादिविशेषणानामसम्भवात् । स्मृत्यादयस्तु स्वज्ञानविशिष्टा 5 लिङ्गं सम्भवन्त्येव 'अतोऽर्थोपलब्धिरव्यभिचारादिविशेषणविशिष्टा तत्पूर्वकपूर्विका यतः - तदनुमानमि' त्यभिधीयमाने न कश्चिद्दोषः ।
नन्वेतस्मिन् सूत्र- व्याख्याने त्रिविधग्रहणमनर्थकम् । न, अनुमानविभागार्थत्वात् । न च पूर्ववदादिवैयर्थ्यम् । होगा । उस के निवारणार्थ 'अव्यपदेश्यार्थोपलब्धिजनक' ऐसा विशेषण कर दिया जाय तो यद्यपि 'लिङ्ग' शब्द से उत्पन्न अर्थोपलब्धि अव्यपदेश्य न होने उस में अतिप्रसंग तो नहीं होगा । किन्तु इन सभी 10 विशेषणों के लगाने से फलितार्थ यही होगा कि इतने विशेषणों से विशिष्टफलजनक जो अध्यक्षफल है वही अनुमान (करण) है । इस स्थिति में विशिष्टज्ञान ( प्रत्यक्षफलरूप ) ही अनुमान बनेगा न कि अन्य अनुमान, अतः उन में अव्याप्ति दोष ध्रुव रहेगा।
[ स्मृति आदि भी अनुमानप्रमाण - वात्स्यायन ]
यदि प्रत्यक्षफलरूप विशिष्टज्ञान को ही अनुमान (करण) कहा जाय, अन्य स्मृति आदि को नहीं 15 तो वह अयुक्त है। कारण, वात्स्यायनभाष्य (१-१-१६) में कहा है 'मनः पदार्थ की सिद्धि के ये सब लिंग हैं स्मृति, अनुमान, आगम, संशय, प्रतिभा, स्वप्नज्ञान, ऊह, सुखादिप्रत्यक्ष, इच्छा-प्रयत्नादि ।' इस कथन से स्पष्ट होता है कि सिर्फ प्रत्यक्षफलरूप विशिष्टज्ञान ही अनुमान नहीं है किन्तु मन की सिद्धि करने वाले उपरोक्त सभी लिंग ( अनुमानकरण होने से ) अनुमानप्रमाण हैं, क्योंकि ये सब विशिष्टफल के जनक है ।
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इस आशंका का उत्तर यह है कि ये जो स्मृति आदि हैं वे स्वरूपसत् विशेषण हो कर अनुमानरूप नहीं बन सकते, क्योंकि उन में (स्मृत्यादि में) अव्यभिचारादि विशेषणों का मेल नहीं खाता। उन का ज्ञान अवश्य अव्यभिचारि विशेषणों के साथ मेल रखता है, अतः ज्ञानविशिष्ट ( अर्थात् स्मृति आदि का ज्ञान यानी लिंगज्ञान ) स्मृत्यादि सब अव्यभिचारादि विशेषणों से मेल रखने के कारण लिंगरूप यानी 'अनुमान' हो सकते हैं ।
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निष्कर्ष :- अव्यभिचारादि विशेषणों से अन्वित प्रत्यक्षपूर्वकपूर्विका अर्थोपलब्धि जिस (लिंगज्ञान) से होती है वही अनुमान है। ऐसा लक्षणकथन करने में कुछ भी दोष नहीं है।
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प्रश्न : उपरोक्त सूत्र ( सभाष्य ) की जो आपने विस्तृत व्याख्या प्रस्तुत की उस से तो लगता है कि स्मृति आदि लिंगज्ञान के तो अनेक प्रकार हैं, फिर सूत्रकारने 'त्रिविध' ऐसा व्यर्थ कथन क्यों किया ?
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उत्तर :- नहीं, ‘त्रिविध' ऐसा जो कहा है वह तो अनुमान के स्मृत्यादि भिन्न भिन्न स्वरूप दिखाने के लिये नहीं कहा किन्तु उन के पूर्ववत् आदि तीन विभाग सूचित करने के लिये 'त्रिविधम्' कहा है। प्रश्न :- 'त्रिविधम्' से तीन विभाग कह देने पर पुनः पूर्ववत् आदि के कथन से पुनरुक्ति दोष
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