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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ एवमपि लैङ्गिकविपर्ययेऽतिप्रसङ्गः, यतो गवयविषाणदर्शनाद् गोप्रतिपत्तिरुपजायते यद् गोविषाणसादृश्यज्ञानं प्रत्यक्षफलं तत्पूर्वकं ‘गौः' इति विपर्ययज्ञानम् अतस्तज्जनकस्याप्यनुमानत्वप्रसक्तिः । तन्निवृत्तये अव्यभिचारिपदमनुवर्तनीयम।
एवमपि संशयज्ञानजनकेऽतिप्रसंगः, यतो गो-गवयानुयायिलिङ्गदर्शनात् ‘गौर्गवयो वा' इति संशय 5 उपजायते तज्जनकं च सदृशलिङ्गज्ञानं प्रत्यक्षफलम् तत्पूर्वकं संशयज्ञानमर्थविषयं च तज्जनकस्याऽप्यनुमानप्रसक्तिरिति- तद्व्यवच्छित्तये व्यवसायात्मकपदमनुवर्तनीयम्।
तथाप्यविनाभावसम्बन्धस्मरणाऽनन्तरं 'तथा चायं धूमः' इति प्रदर्शनज्ञानाद् ‘अग्निः' इति वाक्याच्च अनुभवविषयभूत अतीत यानी विनष्ट अर्थ से जन्य मानी जाय तो वह शक्य नहीं, क्योंकि विनष्ट
को जनक मानने पर उसका विनष्टत्व विनष्ट होकर अविनष्टत्व प्रसक्त होगा। विनष्टत्वरूप से ही 10 जनकत्व मानना उचित नहीं, क्योंकि विनष्टत्वरूपेण विनष्ट वस्तु असत् है, असत् वस्तु स्मृतिजनक
नहीं हो सकती। निष्कर्ष यह है कि जिस (प्रमाण) से तत् (प्रत्यक्ष) पूर्वक त्रिविध अर्थोपलब्धि होती ___ है वह अनुमान है।
[ अनुमानलक्षण में अव्यभिचारिपदानुवृत्ति ] (न्यायसूत्रीय प्रत्यक्षलक्षण (१-१-४) में 'इन्द्रियार्थ संनिकर्षउत्पन्न' इस अंश को छोड कर बाकी 15 सब विशेषण अनुमान के लक्षण में भी जरूरी है यह दिखा रहें हैं, 'ज्ञान' पद की आवश्यकता दिखा दिया है - अब 'अव्यभिचारि' आदि पदों की आवश्यकता दिखा रहे हैं।) उक्त परिष्कार करने पर भी लिङ्गजन्य विपरीत ज्ञान (भ्रम) में अनुमान के लक्षण की अतिव्याप्ति होगी। कारण :- जब पूरा गवय नहीं दीखता किन्तु उस का गोविषाणसदृश सींग दिखता है तब किसी को गौ का अवबोध
हो जाता है जो कि तत्पूर्वकादि लक्षणांशों से आक्रान्त है, अविनष्ट विषाण अर्थ से उपलब्धि प्रकट 20 हुई है। गोविषाण का गवयविषाण में जो सादृश्य ज्ञान है वह प्रत्यक्ष का फल है। तत्पूर्वक ही 'यह
गौ है' ऐसा भ्रम हुआ है। इस लिये उस के जनक में अनुमान(अनुमितिकरण)त्व की अतिव्याप्ति होगी। उसका निवारण 'अव्यभिचारि' पद से हो जायेगा। भ्रम तो व्यभिचारि होता है।
[ व्यवसायात्मक पद की अनुवृत्ति ] तथापि संशयज्ञान के जनक में अतिव्याप्ति है - गौ एवं गवय दोनों में समानधर्मरूप विषाणात्मक 25 लिंग के देखने पर यह 'गवय है या गौ' ऐसा जो संशयज्ञान होगा उसका जनक है समान लिङ्ग
(विषाण) का ज्ञान। वह प्रत्यक्ष का फल है, तत्पूर्वक होता है अर्थविषयक संशयज्ञान । अतः उस के जनक सदृशलिङ्गज्ञान में अनुमानत्व की अतिव्याप्ति होगी। उस के निवारणार्थ 'व्यवसायात्मकम्' यह विशेषण उपयुक्त है। संशय व्यवसायात्मक (निश्चयात्मक) नहीं होता।
[अव्यपदेश्य - पद की अनुवृत्ति ] 30 'अव्यपदेश्य' पद न लिया जाय तो शाब्द ज्ञान में निम्नोक्त रीति से अतिव्याप्ति होगी - अविनाभाव
सम्बन्ध का स्मरण होने पर “यह धूम भी वह्निव्याप्य है" ऐसा प्रदर्शन परक बोध जो होता है उस से अग्नि का बोध होता है वह प्रत्यक्षपूर्वक है, अनुमानप्रमाणजन्य नहीं है। इसी तरह नालीकेरद्वीपवासी
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