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खण्ड - ४, गाथा - १
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समानश्रुत्या प्रमाण - तर्कसाधनोपालम्भ...' (न्या०सू० १-२-१) सूत्रवत् साधनशब्दस्य लुप्तनिर्देशं मन्यन्ते । 'तत्पूर्वकम्' इत्यत्र तच्छब्देन प्रत्यक्षं प्रमाणमभिसम्बध्यते । तत्पूर्वकं = तत् = फलं तत्फलपूर्वकं तत्पूर्वकंतदनुमानं व्यवच्छिनत्तीत्युच्यमाने संस्कारेऽतिप्रसंग: तस्य तत्फलपूर्वकत्वेऽप्यबोधरूपत्वान्नानुमानव्यवच्छेदकत्वमिति तन्निवृत्तये ज्ञानग्रहणं कार्यम् । अथ प्रत्यक्षसूत्रे ज्ञानग्रहणं प्रक्रान्तं तदिहापि सम्बध्यते । नन्वेवमपि 'ज्ञानरूपं तत्पूर्वकं यतो भवति तदनुमानम्' इत्युच्यमाने स्मृत्याऽतिप्रसङ्गः, द्वितीयलिङ्गदर्शनपूर्विकाया अविनाभाव - 5 सम्बन्धस्मृतेस्तत्पूर्वकत्वात् तज्जनकस्यानुमानत्वप्रसंग:, इति तन्निवृत्तयेऽर्थोपलब्धिग्रहणं कार्यम् स्मृतेस्त्वनर्थजन्यत्वमर्थं विनाऽपि भावात् । न च विनष्टस्य जनकत्वम् अविनष्टत्वप्रसक्तेः । न च विनष्टरूपतया जनकत्वम्, तदाऽसत्त्वात् । अतोऽर्थोपलब्धिर्यथोक्तविशेषणा यतो भवति तदनुमानम् ।
कि 'तत्पूर्वक होनेवाला पूर्ववत् शेषवत् - सामान्यतोदृष्ट तीन भेदवाला जो होता है वह अनुमान है।' इस आद्य सूत्र में लक्ष्य - लक्षण का विभाग इस तरह है 'अनुमान' यह लक्ष्य का निर्देश है । 'तत्पूर्वकम्' 10 यह लक्षण है ( तीनभेद उस में अन्तर्भूत है ।) यहाँ समानशब्दश्रुति के कारण एक 'पूर्वक' शब्द का लोप (अध्याहार) मानना होगा, यानी 'तत्पूर्वक' शब्द को 'तत्पूर्वक - पूर्वक ऐसा परिष्कृत मानना पडेगा । उदा० न्यायसूत्र का एक सूत्र है प्रमाण - तर्कसाधनोपालम्भ... (१-२-१) इत्यादि । इस सूत्र में भी समानश्रुति के कारण एक साधनशब्द का अध्याहार माना गया है । 'तत्पूर्वकं' इस में तत् शब्द का अभिसम्बन्ध प्रत्यक्ष के लिये है । 'तत्पूर्वकपूर्वकं' यहाँ ' तत्पूर्वकं' का शब्दार्थ है 'तत्फलं' यानी प्रत्यक्षप्रमाण का फलरूप 15 जो प्रत्यक्षज्ञान । अब 'तत्पूर्वकपूर्वक' का अर्थ होगा प्रत्यक्षप्रमाणफलभूत प्रत्यक्षज्ञान का फल अनुमान है। इस से यह ध्वनित हुआ कि अनुमान अनुमानपूर्वक नहीं होता । किन्तु ऐसा कहने पर भी यानी अन्य भावों से अनुमान का व्यवच्छेद करने पर भी संस्कार में अनुमानत्व का व्यवच्छेद नहीं हो सकेगा, क्योंकि संस्कार भी प्रत्यक्षज्ञानमूलक ही होता है, अतः उस में अनुमानलक्षण की अतिव्याप्ति होगी । उस के निवारणार्थ लक्षण में 'ज्ञान' पद का ग्रहण करना होगा। जैसे प्रत्यक्ष के लक्षणसूत्र 20 में 'ज्ञान' पद का ग्रहण है वैसे यहाँ भी ग्रहण कर लेना होगा ।
[ संस्कार में लक्षण की अतिव्याप्ति की आशंका
निवारण ]
आशंका :- प्रत्यक्षसूत्र की तरह यहाँ ( संस्कार का व्यवच्छेद करने के लिये) 'ज्ञान' पद का अध्याहार करेंगे तो 'यतो' पद के अध्याहार के साथ वाक्यार्थ यह होगा कि 'प्रत्यक्ष पूर्वक ज्ञानरूप फल जिस से प्राप्त हो वह अनुमान है।' ऐसा वाक्यार्थ करने के कारण अब स्मृति में लक्षण की अतिव्याप्ति 25 होगी । व्याप्तिग्रहणकाल में एक बार लिंगदर्शन के बाद, दूसरी बार पक्ष में लिंगदर्शन होने पर, तत्पूर्वक व्याप्तिस्मरण होगा, तो वह स्मृति भी प्रत्यक्षपूर्विका होने से स्मृतिजनक लिङ्गदर्शन में भी अनुमानत्व की अतिव्याप्ति होगी ।
इस आशंका के निवारण में, उक्त अतिव्याप्ति के वारणार्थ कहना होगा कि अनुमानलक्षण में अर्थोपलब्धि (अर्थाद् उपलब्धि) का भी ग्रहण किया जाय । स्मृति तो अर्थ के विना भी हो सकती 30 है, वह अर्थजन्य उपलब्धिरूप नहीं होती इसलिये उस में अतिव्याप्ति नहीं होगी। कदाचित् स्मृति को 4. 'प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः सिद्धान्ताऽविरुद्धः पञ्चावयवोत्पन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो वादः' इति पूर्णं सूत्रम् । इति पूर्वमुद्रिते ।
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