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________________ ३४० सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ स त्रिप्रकारस्तदंशेन व्याप्त एवेति सम्बन्धनीयम् । अविनाभावनियमात् = अविनाभावस्य व्याप्तेस्त्रिप्रकार एव पक्षधर्मे नियमात् त्रिविधस्य च पक्षधर्मस्याऽविनाभावनियमात् तेन त्रिविधपक्षधर्मव्यतिरिक्ता न हेतवः । त्रिविधश्च पक्षधर्मो हेतुरेव तदंशेन व्याप्त एवेति कृत्वा हेतुलक्षणावगमादेव हेत्वाभासाः ततो हेत-लक्षणयुक्तादपरे = अन्ये तल्लक्षणविकला हेत्वाभासा अवगम्यन्त इति न पृथक् तल्लक्षणाभिधानम् । तदेवं यथोक्तलक्षणाद्धेतोः साध्यप्रतिपत्तिः स्वार्थमनुमानम्, यथोक्तहेत्वभिधानं च परार्थानुमानमिति स्थितम् । __ एतेन 'तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववत् शेषवत् सामान्यतोदृष्टं च' (न्या सू०१-१-५) नैयायिकपरिकल्पितमनुमानलक्षणं प्रतिक्षिप्तम्। अत्र च सूत्रे 'तत्पूर्वकमनुमानम्' इत्येतावदनुमानलक्षणमित्येके । 'तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानम्' इति चान्ये। 'तत्पूर्वं त्रिविधं पूर्ववत् शेषवत् सामान्यतोदृष्टं चानुमानम्' इत्यपरे। आधे सूत्रे लक्ष्य10 लक्षणविभागमुपदशर्यन्ति- ‘अनुमानम्' इति लक्ष्यनिर्देश: तत्पूर्वकमिति लक्षणम् । अत्र चैकस्य पूर्वकशब्दस्य कार्य. अनपलम्भ नामक तीन प्रकारवाला हो तभी वह साध्यांश के साथ व्याप्त माना जा सकता है, अन्य कोई नहीं। तथा ऐसा भी अन्वय करना कि वह तीन प्रकारवाला जो होगा वह साध्यांश से व्याप्त ही होगा। कारिकांश ‘अविनाभावनियमात्' का अर्थ है अविनाभावस्वरूप व्याप्ति तीनप्रकारवाले पक्षधर्म में ही नियत होती है। तथा तीन प्रकारवाले पक्षधर्म में ही अविनाभाव का नियम करने 15 से फलित यह होगा कि तीनप्रकारवाले पक्षधर्म से जो भिन्न होंगे वे हेतु नहीं होंगे। तीनप्रकारवाला पक्षधर्मस्वरूप जो हेतु होता है वही साध्यांश से व्याप्त होता ही है – इस ढंग से हेतु के लक्षण का बोध होने से (हेत्वाभासास्ततोऽपरे - इस कारिकांश का अर्थ यह होगा कि) हेतुलक्षण से युक्त हेतुओं से भिन्न यानी हेतुलक्षणशून्य अर्थ हेत्वाभास होते हैं - ऐसा सहजतया अर्थतः ज्ञात हो जाने से हेत्वाभास का अलग लक्षण कहा नहीं गया है। 20 निष्कर्ष :- उपरकथित सुलक्षणयुक्त हेतु से स्वयं जो साध्य का बोध करना वह स्वार्थानुमान कहा जाता है। अन्य के बोध के लिये तथाकथित सुलक्षण हेतु का विधान करना - यही है परार्थानुमान - यह निश्चित होता है। [ नैयायिक प्रदर्शित अनुमानलक्षण की समालोचना ] अनुमान के प्रामाण्य में बाधा डालनेवाले चार्वाकमत का प्रतिक्षेप करने के बाद बौद्ध मनीषी 25 कहते हैं कि नैयायिकमत में अनुमान का प्रामाण्यस्वरूप दुर्घट होने से उन के मतानुसार जो यह लक्षणसूत्र हैं कि 'तत्पूर्वक होनेवाले अनुमान की तीन विधाएँ हैं - पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट ।' यह भी निरस्त हो जाता है। (एतेन... से लेकर पृ०३६६ में पं०४ तक एक प्रघट्टक है।) [ लक्षणगत 'तत्पूर्वक' पद की विविध व्याख्या ] नैयायिक के इस लक्षणसूत्र के विवरण में अनेक मत-मतांतर हैं। १- कुछ विद्वान् कहते हैं कि 30 यह पूरा सूत्र लक्षणरूप नहीं है। 'तत्पूर्वक हो वह अनुमान है' इतना ही अनुमान का लक्षण है। २- कुछ विद्वान कहते हैं 'तत्पूर्वक तीन भेदवाला हो वह अनुमान है। इतना अनुमान का लक्षण है।' ३-अन्य मनीषीयों का कहना है कि पूरा सूत्र लक्ष्य एवं लक्षण का निर्देश इस तरह करता है । हा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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