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खण्ड-४, गाथा-१
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नायामविशेषात् सर्वार्थरविनाभावो भवेत् । न चैकार्थसमवायनिमित्तो रूपरसादेरविनाभावः, तस्य निषिद्धत्वात्। तदुक्तम् - (प्र०वा०४-२०३)
एकसामग्र्यधीनत्वाद् रूपादे रसतो गतिः। हेतुधर्मानुमानेन धूमेन्धनविकारवत् ।। इति।
तदेवं तादात्म्य-तदुत्पत्त्योरविनाभावव्यापिकयोर्यत्राभावस्तत्राऽविनाभावाऽभावाद् हेतुत्वस्याप्यभावः सिद्धः। तदुक्तम् - (प्र०वा०३-९)
5 ___ 'संयोग्यादिषु येष्वस्ति प्रतिबन्धो न तादृशः। न ते हेतवः इत्युक्तं व्यभिचारस्य संभवात् ।।"
तथा च प्रयोगः – यस्य येन तादात्म्य-तदुत्पत्ती न स्त: न स तदविनाभावी यथा प्रमेयत्वादिरनित्यत्वादिना; न स्तश्च केनचित् तादात्म्य-तदुत्पत्ती स्वभाव-कार्यव्यतिरेकिणामर्थानामिति व्यापकानुपलब्धेः । स्वभावानुपलब्धेस्तु स्वभावहेतावन्तर्भावः इति तस्यास्तादात्म्यलक्षण एव प्रतिबन्धः। कारण-व्यापकानुपलब्ध्योरपि तादात्म्यतदुत्पत्तिप्रतिबन्धाद् व्याप्य-कार्यनिवृत्तिसाधकत्वम्। उक्तं च, (प्र०वा०३-२३)
'तस्मात् तन्मात्रसम्बद्धः स्वभावो भावमेव वा। निवर्तयेत् कारणं वा कार्यमव्यभिचारतः।।'
यद्वा 'त्रिधैव सः' इति स पक्षधर्मस्त्रिप्रकार एव स्वभाव-कार्याऽनुपलम्भाख्यः तदंशेन व्याप्तो नान्यः, नुकसान है जब कि तादात्म्य या तदुत्पत्ति विना भी अविनाभाव स्वीकार्य है ? यदि कहें कि - 'रूप रस का एकार्थसमवायि होने से रूप में रस का अविनाभाव एकार्थसमवायमूलक हो सकता है' - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि समवाय का निषेध पहले कई बार हो चुका है। कहा भी है - 15 (प्रमाण वार्त्तिक ४-२०३ में) 'रूपादि की रस से जो उपलब्धि होती है वह एकसामग्रीमूलक होने से होती है। जैसे हेतुधर्म के अनुमान से धूमेन्धनविकार।' इस प्रकार अविनाभाव के व्यापक तादात्म्य या तदुत्पत्तिरूप प्रतिबन्ध जहाँ नहीं होगा वहाँ अविनाभाव नहीं होने से हेतुत्व का भी अभाव सिद्ध होगा। प्र०वा०में (३-९) में कहा है - 'संयोगी (समवायी-एकार्थसमवायी-आकाश) आदि जिन (हेतुओं) में ता०त प्रतिबन्ध नहीं है वहाँ व्यभिचार का सम्भव होने से वे हेतु नहीं हो सकते ।।' अत एव 20 अविनाभाव के व्यापकीभूत तादात्म्य या तदुत्पत्ति जिस की जिस के साथ नहीं होती वह उस का अविनाभावि नहीं होता। उदा० प्रमेयत्व का अनित्यत्व के साथ न तो तादात्म्य है न तो वह उस से उत्पत्तिवाला है। (इस लिये प्रमेयत्व अनित्यत्व का अविनाभावी नहीं होता) स्वभाव एवं कार्य से अतिरिक्त अर्थों का किसी से भी तादात्म्य या तदत्पत्तिभाव नहीं होता। यही है व्यापकानपलब्धि। स्वभावानुपलब्धि का अन्तर्भाव अन्ततो गत्वा स्वभावहेतु में ही हो जाता है। इस लिये वहाँ तादात्म्यमूलक 25 ही अविनाभाव समझना। कारणानुपलब्धि और व्यापकानुपलब्धि में तो तदुत्पत्ति एवं तादात्म्य प्रेरित ही अविनाभाव प्राप्त होने से व्याप्य की एवं कार्य की व्यावृत्ति निर्विवाद सिद्ध हो सकेगी। प्रमाणवार्त्तिक में (३-२३) कहा है - ‘अतः अविनाभाव से सम्बद्ध स्वभाव (अनुपलब्धि) भाव की व्यावृत्ति करता है एवं अव्यभिचार बल से कारण (अपनी अनुपलब्धि से) कार्य की व्यावृत्ति करता है।' [ 'तीन प्रकार का हेतु' इस कारिकांश के अर्थ का दूसरा प्रकार ]
30 'त्रिधैव सः' इस कारिकांश का अन्यप्रकार से भी व्याख्यान इस प्रकार है – उक्त पक्षधर्म स्वभाव,
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