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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ वक्ष्यति च– 'न स त्रिविधा तोरन्यत्रास्तीत्यत्रैव नियत उच्यते' ( ) इति हेत्वाभासत्वे साध्ये तत्स्वभावहेतुः । त्रिविधहेतुव्यतिरिक्तत्वादेव तदन्येषामविनाभाववैकल्यं व्यापकानुपलब्धेः सिद्धम् अविनाभावस्य तादात्म्यतदुत्पत्तिभ्यां व्याप्तत्वात्, तयोरेव तस्य भावात्, तत्र च तयोरवश्यं भावादतदुत्पत्तेरतत्स्वभावस्य च तदनायत्ततया तदव्यभिचारनियमाभावात्। उक्तं च - (प्र०वा० ३-३१/३२)
कार्यकारणभावाद्वा स्वभावाद्वा नियामकात्। अविनाभावनियमोऽदर्शनान्न तु दर्शनात् ।। अवश्यंभावनियमः कः परस्यान्यथा परैः। अर्थान्तरनिमित्ते वा धर्मे वाससि रागवत् ।। इति।।
याऽपि रसतः समानसमयस्य रूपादेः प्रतिपत्तिः साऽपि स्वकारणाऽव्यभिचारनिमित्ताऽविनाभावनिबन्धनेति तत्कारणोत्पत्तिरेवाऽविनाभावनिबन्धनम् । अन्यथा तदनायत्तस्य तत्कारणानायत्तस्य वा तेनाऽविनाभावकल्प
भी अविनाभाव के न होने से उन अर्थों की हेत्वाभासत्व के साथ व्याप्ति ज्ञात होती है। कहा जायेगा 10 कि - ‘वह अविनाभावनियम त्रिविध हेतु से भिन्न अर्थों में नहीं होता, अतः तीन में ही नियत
कहा गया है।' असिद्ध-विरुद्ध और अनैकान्तिक ये तीन हेत्वाभास हैं, उन में हेत्वाभासत्व सामान्य धर्म है जो अविनाभावविरह से व्याप्त है, प्रमेयत्वादि आशंकित हेतुओं में वह दृष्ट है। अतः उन में (असिद्धादि में) हेत्वाभासत्व की सिद्धि के लिये अविनाभावविरह जो कि हेत्वाभासों का स्वभाव
है उस को स्वभावहेतु के रूप में दिखाया जाता है। त्रिविधहेतु भिन्न अर्थों में व्यापकानुपलब्धि से 15 अविनाभावविरह सिद्ध है। अविनाभाव का व्यापक है त्रिविधहेतुता, हेत्वाभासों में उस व्यापक का अनुपलम्भ होने से अविनाभाव रूप व्याप्य का अभाव सिद्ध होता है।
__ अविनाभाव कहाँ होता है ? उत्तर :- जिस अर्थ में जिसका तादात्म्य या तदुत्पत्ति रहती है वहाँ उस का अविनाभाव होता है ऐसी व्याप्ति है। तादात्म्यवाले या तदुत्पत्तिवाले अर्थ में ही अविनाभाव
का अस्तित्व होता है, उपरांत - जहाँ अविनाभाव रहता है वहाँ तादात्म्य या तदुत्पत्ति (अन्यतर) 20 अवश्य रहते हैं। जो जिस से तादात्म्यापन्न नहीं होता अथवा जिस से उत्पन्न नहीं हुआ वह उस
का आयत्त यानी अविनाभावि नहीं होता। अत एव वह उस का अव्यभिचारि हो ऐसा नियम भी नहीं होता। कहा है - (प्रमाणवार्त्तिक ३-३१/३२ का. में) अविनाभाव का नियम नियामकस्वरूप कार्यकारणभाव से अथवा स्वभाव (तादात्म्य) से होता है। विपक्ष में (व्याप्य के) दर्शन से नहीं किन्तु
अदर्शन से होता है। - "इस के अलावा और कौन सा एक का दूसरों के साथ अवश्यंभावनियम 25 हो सकता है ? वस्त्र में (औपाधिक) रंग की तरह अर्थान्तरमूलक धर्म में अवश्यंभावनियम कैसा ?"
[ रस से रूप के अनुमान में समानकारणजन्यत्वमूलक अविनाभाव ] प्रश्न :- तादात्म्य या तदुत्पत्ति के विना भी रस के से समानकालीन रूपादि का अनुमान कैसे होता है ? उत्तर :- रूपादि के कारणवृन्द रसादि के कारणों का व्यभिचारि नहीं होता। इस अव्यभिचारमूलक
अविनाभाव के बल से ही, रस के द्वारा रूपादि का अनुमान होता है। तात्पर्य, यहाँ भी अविनाभाव 30 का मूल कारण-कार्यभाव यानी तदुत्पत्ति (तत्समानकारणोत्पत्ति) ही है। यदि ऐसा न मानोगे- तो जो
स्वभाव से आयत्त नहीं होता अथवा अपने कारणों का आयत्त नहीं होता, फिर भी उन में अविनाभाव की कल्पना की जाय तो फिर सभी अर्थों का किसी भी अर्थ के साथ अविनाभाव मान लेने में क्या
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