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________________ खण्ड-४, गाथा-१ ३३७ न चाऽत्यन्ताऽसत्त्वेन हेतुत्रयबाह्यार्थाः अभ्युपगताः, केवलं हेतुत्वमन्यत्र तेषु व्यामोहादध्यारोपितमाशङ्कितं वा तद्विरुद्धोपलब्धेः प्रतिषिध्यते, इति कथं 'अत्यन्ताऽसंभविनो न विरोधगतिः' ( ) इति दूषणम् ? सहानवस्थानलक्षणवत् परस्परपरिहारस्थितलक्षणस्यापि विरोधस्य भावे सर्वत्र तन्न्यायोपवर्णनमसंगतमेव। अन्यत्र च प्रसिद्धविरोधयोः शीतोष्णयोरिव हेतुतदाभासयोर्हेतुत्रयबाह्येष्वर्थेषु हेत्वाभासत्वोपलम्भाद्धेतुत्वनिरासो यथाग्नावुष्णस्पर्शोपलम्भात् शीतस्पर्शनिषेध इति न क्वचित् साध्य-धर्मिण्येव विरोध: 5 प्रतिपत्तव्यः । अत्यन्ताऽसतोऽपि च लाक्षणिको विरोधोऽवगम्यत एव यथा भावेन सर्वशक्तिविरहलक्षणस्याभावस्य । ___कुतः पुनः प्रमाणात् त्रिसंख्याबाह्यानामर्थानां हेत्वाभासत्वेन व्याप्तिरवगतेत्याशंक्याह-अविनाभावनियमात्' (३३४-४) इति लिङ्गतयाऽऽशंक्यमाने त्रिविधहेतुव्यतिरिक्तेऽर्थे पक्षधर्मतासद्भावेऽप्यविनाभावस्याभावात् । [ अत्यन्त असत् का विरोध कैसे - आक्षेप का प्रतिकार ] बौद्ध कहता है कि हमने तीन हेतु से भिन्न किसी अत्यन्तासत् अर्थ का विधान या स्वीकार 10 किया ही नहीं। हमारा इतना ही स्वीकार है कि धूम आदि असद्भिन्न यानी सत् वस्तु में हेतुत्व प्रसिद्ध है, असत् आकाशकुमुसादि अर्थों में वह नहीं होने पर भी यदि कोई वादी उन में हेतुता का आरोप करे अथवा उन में भी हेतुत्व होने की शंका करे तो असद्विरुद्ध सत् में ही उस की उपलब्धि प्रसिद्ध होने से असद् अर्थों में हेतुत्व होने का हम प्रतिषेध करते हैं। फिर हमारे मत के ऊपर 'अत्यन्त असद्भूत अर्थ में विरोध का अवबोध शक्य नहीं हैं' ऐसा दूषण कैसे लागु होगा ? 15 विरोध सिर्फ सहानवस्थानरूप ही नहीं होता, किन्तु परस्पर परिहारेण स्थिति – स्वरूप भी विरोध होता है। यहाँ हेतुत्व और हेत्वाभासत्व परस्पर एकदूसरे को छोड कर ही रहनेवाले हैं यह सुविदित है, यानी उन दोनों में परस्पर परिहारेण स्थितिरूप विरोध सुज्ञात है। फिर सर्वत्र सहानवस्थानरूप विरोध को लेकर 'अत्यन्तअसंभवि अर्थ के साथ विरोध का बोध शक्य नहीं' इस न्याय का प्रसञ्जन कैसे संगत कहा जाय ?! जैसे अग्नि-जलादि पदार्थों में शीतोष्ण स्पर्शों का विरोध सुप्रसिद्ध है वैसे यहाँ हेतुत्व और हेत्वाभासत्व का भी विरोध सुविदित होने से, तीन हेतु से भिन्न अर्थों में हेत्वाभासत्व का ग्रहण होने पर, उन में हेतुत्व का निषेध प्रमाणसिद्ध ही है : जैसे अग्नि में उष्णस्पर्श का ग्रहण होने पर शीत स्पर्श का निषेध प्रमाणसिद्ध होता है। मतलब यह हुआ कि विरोध का उद्भावन अन्य धर्मी में तो ठीक है किन्तु साध्यधर्मी में विरोध का उद्भावन उचित नहीं होता। हमने जो परस्परपरिहारस्थितिरूप 25 विरोध का लक्षण दिखाया है वैसा विरोध तो अत्यन्त असत् में भी उठाया जा सकता है। उदा. जैसे सर्वशक्तिशून्यस्वरूप अभाव का भाव के साथ विरोध होता है। [ तीन से अतिरिक्त अर्थ हेत्वाभास होने में प्रमाणपृच्छा ] आशंका :- तीन संख्या से बहिर्भूत अर्थों की हेत्वाभासत्व के साथ व्याप्ति का अवधारण कौन से प्रमाण से करेंगे ? उत्तर :- प्र.वा०३-१ की पक्षधर्मस्तदंशेन... इस कारिका में 'अविनाभावनियम से' यह उत्तररूप में ही कहा है। तात्पर्य, लिंगरूप से सम्भावित तीन हेतु से बहिर्भूत अर्थ में पक्षधर्मता के होने पर 20 30 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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