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________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ निषेधहेतुतेत्याशंक्याह- ‘हेत्वाभासास्ततोऽपरे।।' (प्र. वा. ३-१) इति। तदंशव्याप्तिवचनेनान्वय-व्यतिरेकयोरभिधानात् ततः 'त्रिधैव स' इति। (द्र० पृ. ३३४-६) । अयमभिप्रायः - त्रित्वे हेतुर्नियम्यमानो हेतुविपर्ययेण हेत्वाभासत्वेन त्रिसंख्याबाह्यस्यार्थस्य व्याप्ती त्रिसंख्यायामेव नियतो भवति। यथा सत्त्वलक्षणो हेतुः क्षणिकेषु नियम्यमानः सत्त्वविपर्ययेणाऽसत्त्वेन 5 क्षणिकविपक्षस्याऽक्षणिकस्य व्याप्ती नियतः सिध्यतीति त्रिविधहेतुव्यतिरिक्तेष्वर्थेषु हेत्वाभासतोपदर्शनम् । इह च विरुद्धोपलब्ध्या कार्यस्वभावानुपलम्भव्यतिरिक्तानां भावानां हेतुत्वाभावनिश्चयः। हेतु-तदाभासयोश्च परस्परपरिहारस्थितलक्षणतैव विरोधः प्रतिपन्नः, हेतुलक्षणप्रतीतिकाल एव तदात्मनियतप्रतिभासज्ञानादेव तद्विपरीतस्यान्यतया तदाभासताप्रतीतेः परस्परमितरेतररूपाभावनिश्चयात् । तेन हेत्वाभासत्वं त्रिविधहेतुव्य तिरिक्तेषूपलभ्यमानं स्वविरुद्धं हेतुत्वं निराकरोति। 10 = तीन से अतिरिक्त सब हेत्वाभास हैं' ऐसा कहना पड़ा है। जब तीन से अतिरिक्त का निषेध अशक्य है तब भी तीन से अतिरिक्त जो कोई भी है वे सब हेत्वाभास हैं ऐसा तो कहा जा सकता है।' 'तदंशेन व्याप्त' ऐसा पक्षधर्म का विशेषण अन्वय-व्यतिरेक को सूचित करता है। इस प्रकार ‘त्रिधैव स' ऐसा विधान सार्थक है। अवधारण से चतुर्थ हेतु का निषेध नहीं किन्तु तीन से अन्यों का ‘हेत्वाभास' रूप से विधान करना है यह भावार्थ है। 15 [ हेतु के तीन ही प्रकार हैं - इस कथन की स्पष्टता ] इसी भावार्थ को स्पष्ट करने के लिये अपने अभिप्राय को खोल कर दिखाते हैं – हेतु जब तीन संख्या से नियन्त्रित कहा जाता है तब फलित यह होता है कि तीन संख्या से बहिर्भूत अर्थ विपरीत हेतु यानी हेत्वाभासत्व से व्याप्त है, इस प्रकार हेत्वाभास व्यावृत्त हेतु तीन संख्या से नियत बन जाता है। इस की स्पष्टता उदाहरण से देखिये - सत्त्वात्मक हेतु क्षणिक अर्थों में नियन्त्रित 20 दिखाया जाय तब, सत्त्व से उलटा यानी असत्त्व के साथ क्षणिकत्व से उलटा यानि अक्षणिकत्व व्याप्त होने का फलित होगा, इस से क्षणिकत्व के साथ सत्त्व हेतु की व्याप्ति सिद्ध हो जाती है। उससे यह निश्चय होता है कि त्रिविध हेतु से अतिरिक्त अर्थों में हेत्वाभासता ही रहेगी। उक्त प्रकार से, कार्य, स्वभाव एवं अनुपलब्धि से जो भिन्न अर्थ है उन में हेतु से विरुद्ध ‘हेत्वाभासत्व' की उपलब्धि होने के कारण उन में हेत्वाभास का निश्चय निष्कंटक है। यदि पूछा जाय कि हेतुत्व 25 और हेत्वाभासत्व में कौन सा विरोध है ? – तो उत्तर है परस्परपरिहार अवस्थिति ही यहाँ विरोध के रूप में विदित है। उस का कारण है उन दोनों में परस्पर इतरेतराभाव यानी भेद होने का निश्चय । हेतु के स्वरूप की जब प्रतीति होती है उसी काल में हेतुस्वरूप के नियत प्रतिभास रूप ज्ञान से ही हेतुविपरीत अर्थ की भिन्नरूप से यानी हेत्वाभासरूप से प्रतीति होती है जिससे उन दोनों के भेद का निश्चय निष्पन्न होता है। इस प्रकार, 'त्रिविध हेतु से भिन्न' अर्थो में ही उपलब्ध होने वाला 30 हेत्वाभासत्व अपने विरोधी हेतुत्व को अपने आश्रय से व्यावृत्त कर देता है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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