SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 354
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ खण्ड-४, गाथा-१ तस्य त्रिविधलिङ्गप्रभवत्वोपवर्णनात्, कार्य-स्वभावयोश्च विधिसाधकत्वेनाभावे साध्ये व्यापाराऽसम्भवात्, अनुपलब्धेश्च हेत्वन्तराभावनिश्चये चतुर्विधाया अप्ययोगात्। तथाहि- स्वभावानुपलब्धिमुन्योपलब्धिरूपा तुल्ययोग्यतारूपस्यैकज्ञानसंसर्गिणोऽभावव्यवहारहेतुरभ्युपगम्यते । न चात्यन्तासत्तयोपगतं हेत्वन्तरमुक्तस्वभावम् तथात्वे देशादिनिषेध एव तस्य भवेन्नात्यन्ताभावः। कारण-व्यापकानुपलब्ध्योरपि कार्य-कारण-व्याप्यव्यापकभावसिद्धौ सत्यां व्यापारः। न चात्यन्तासतो हेत्वन्तरस्य किञ्चिद् वस्तु कारणं व्यापकं वा सिद्धं येन तयोस्तत्र व्यापारो भवेद् । विरुद्धविधिरप्यत्रासम्भवी यतो विरोधोऽविकलकारणस्य भवतोऽन्यभावेऽ- 5 भावादवसीयते । न च हेत्वन्तरेऽत्यन्तासत्ययंप्रकारः सम्भवति । सम्भवे वा न कारणानुपलब्ध्यादीनामात्यन्तिककिया है, उन में से पहले दो यानी कार्य और स्वभाव लिंग तो सिर्फ विधि (भावात्मक) वस्तु के ही ग्राहक होने से अभाव की सिद्धि करने में उन का कोई योगदान ही नहीं है। तथा अनुपलब्धिलिंग से भी – जिन के चार प्रकार है, (१-स्वभावानुपलब्धि, २-कारणानुपलद्धि, ३-व्यापकानुपलब्धि, ४-विरुद्ध उपलब्धि अथवा विरुद्धविधि) उन में से किसी भी एक का अन्य हेतु नास्तित्व की सिद्धि करने का 10 सामर्थ्ययोग नहीं है। कैसे यह देखिये - १-स्वभावानुपलब्धि आखिर तो किसी एक वस्तु की उपलब्धिरूप ही होती है। अन्योन्य संलग्न दो पदार्थ जब तुल्य योग्यतावाले एवं एकज्ञान ग्राह्य होते हैं तब ‘वृक्षस्वभाव न होने से यह शिंशपा नहीं है' – इस प्रकार शिंशपा के अभाव के व्यवहार का प्रवर्त्तन वृक्षस्वभावानुपलब्धि से सम्पन्न होता है, यह मान्यताप्राप्त है। किन्तु जब चतुर्थ हेतु अत्यन्त ही असत् है तब तो उस का कोई स्वभाव 15 न होने से, उस के अभाव का स्वभावानुपलब्धि से ग्रहण ही अशक्य है। यदि वह शक्य होगा तब तो उस का किसी देश-काल में ही निषेध किया जा सकेगा, न कि सर्वथा। अतः स्वभावानुपलब्धि से उस का अत्यन्ताभाव सिद्ध नहीं होगा। २-३:- कारणानुपलब्धि एवं व्यापकानुपलब्धि से भी चतुर्थ हेतुप्रकार का निषेध शक्य नहीं है क्योंकि उस चतुर्थ हेतु का कहीं कार्य-कारणभाव अथवा व्याप्य-व्यापकभाव सिद्ध होने पर ही इन दोनों 20 अनुपलब्धि कि गतिविधि हो सकती है। किन्तु यदि चतुर्थ हेतु अत्यन्तासत् है तो न उस का कोई कारण सिद्ध होगा, न व्यापक, जिस की अनुपलब्धि को उस के अभाव की प्रसिद्धि के लिये अवसर मिल सके। ४:- विरुद्धविधि का भी यहाँ सम्भव नहीं है। कारण :- अत्यन्त असत् के साथ किसी का विरोध भी कैसे ज्ञात होगा ? वह तो जिस के सर्व कारण उपस्थित रहने पर भी किसी प्रतिबन्धक 25 के रहने पर जब वह उत्पन्न नहीं होता तब उस के अभाव से विरोध ज्ञात होता है। अत्यन्त असत् हेतु से ऐसा किसी का विरोध भी सम्भवित नहीं है। यदि अत्यन्त असत् के साथ भी किसी के विरोध होने की सम्भावना करेंगे तो कारणानुपलब्धि आदि में आत्यन्तिक निषेध की प्रवर्तकता ही लुप्त हो जायेगी, क्योंकि अब तो विरुद्धविधि से ही वह कार्य सम्पन्न हो जायेगा। इस प्रकार चार में से एक भी अनुपलब्धि चतुर्थ हेतु का निषेध करने में सक्षम नहीं है। 30 इस विस्तृत आशंका के प्रत्युत्तर में ही ‘पक्षधर्मः...' इत्यादि कारिका में 'ततो अपरे हेत्वाभासाः Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy