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सन्मतितर्कप्रकरण - काण्ड - २
दात्म्यतदुत्पत्तिप्रतिबन्धस्य च लिङ्गस्य साध्यगमकत्वे विशेषविरुद्धानुमानविरोधयोः सहभावदर्शनमात्रप्रतिपन्नाविनाभावलिङ्गप्रभवयोः कथमवकाशः ? तेन 'विशेषविरुद्ध : ' ... (३२८-५ ) इत्याद्यप्यसङ्गतमेव । aais मानस्यापि प्रामाण्योपपत्तेः 'प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणम्' इति चार्वाकमतमयुक्तम् । अत्र च ' पक्षधर्मस्तदंशेन व्याप्तो हेतुस्त्रिधैव सः । अविनाभावनियमाद्धेत्वाभासास्ततोऽपरे ।।' (प्र.वा. ३-१ ) इति वचनात् 'पक्षधर्मस्तदंशेन 5 व्याप्तः' इति लक्षणनिर्देश:, 'हेतुः' इति लक्ष्यनिर्देश:, 'त्रिधैव स हेतु:' इति तत्प्रभेदनिर्देश: ।
अथ हेत्वन्तराभावनिश्चये त्रिधैव स इति नियमो युक्तः प्रतियोग्यभावनिश्चयसापेक्षत्वाद् भावेषु सावधारणनिश्चयस्य । उक्तं च, ( ) 'अयमेवेति यो ह्येष भावे भवति निर्णयः । नैष वस्त्वन्तराभावसंवित्त्यनुगमादृते ।। इति । न च हेत्वन्तराभावः प्रत्यक्षसमधिगम्यः तस्याभावविषयत्वविरोधात्। नाप्यनुमानतः, सामान्य को सिद्ध करना है तो वह असद्व्यावृत्तिरूप से पूर्वसिद्ध होने से सिद्धसाधन दोष आयेगा' 10 यह भी निरस्त हो जाता है, क्योंकि हेतु में साध्य के तादात्म्य अथवा तदुत्पत्ति मूलक व्याप्ति सिद्ध
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होने पर व्याप्तिविशिष्ट हेतु से साध्य का अनुमानात्मक बोध निष्पन्न (सिद्ध) होता है- फिर विशेषविरोध या अनुमानविरोध कितना भी लगाया जाय बेकार है क्योंकि आप विरोध के लिये जो अनुमान लगाते हैं उस की व्याप्ति ही बहुत दुर्बल होती है क्योंकि वह अत्यन्त पगु सिर्फ सहभावदर्शन पर ही अवलंबित है । अत एव चार्वाकने जो कहा था ( ३२८-२८) 'सभी अनुमान में विशेषविरुद्धादि दोष सुलभ हैं' 15 वह भी निरस्त हो जाता है। निष्कर्ष 'एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण है' यह चार्वाकमत असंगत है क्योंकि
अनुमान का प्रामाण्य निष्कंटक संगत है ।
बौद्धमतवादी इस संदर्भ में हेतु के त्रैविध्य दर्शाने के लिये प्रमाणवार्त्तिक ( ३- १ ) की कारिका का निर्देश कर के कहते हैं 'साध्यरूप अंश से व्याप्त पक्षधर्म ' हेतु' है, वह तीन ही भेदवाला होता है, वह भी अविनाभाव के बल से । शेष सब हेत्वाभास होता है।' इस कारिका में 'हेतु' शब्द लक्ष्य 20 का, 'साध्य अंश से व्याप्त पक्षधर्म' यह लक्षण का निर्देश है । 'वह हेतु तीन ही भेदवाला होता
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है' यह प्रभेदों का निर्देश है।
निषेध कैसे ? आशंका ]
यदि
[ तीन से अधिक हेतु का 'त्रिधैव स' कारिकांश की स्पष्टता के लिये पहले एक आशंका व्यक्त की जाती है । तीन से अतिरिक्त कोई अन्य हेतु के अभाव का दृढ निश्चय हो तभी 'वह हेतु तीन प्रकार का 25 ही है' ऐसा नियम उचित कहा जायेगा; क्योंकि हर कोई भावसम्बन्धि अवधारणगर्भित दृढनिश्चय उस
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भावात्मक प्रतियोगि के अभाव के निश्चय पर अवलम्बित रहता है । पूर्वजोंने कहा भी है "भाव के विषय में 'यही है' ऐसा जो यह निश्चय किया जाता है वह उस भाव से अतिरिक्त वस्तु के अभाव के संवेदन के विना हो नहीं सकता।" मतलब है कि 'तीन ही प्रकार का ऐसा अवधारणगर्भित दृढ निश्चय अशक्य है। कारण :- अन्य ( चौथे) हेतु का अभाव निश्चित नहीं है। कैसे यह देखिये
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प्रत्यक्ष से अन्यहेतुविरह ग्राह्य नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्षत्व के साथ अभावविषयत्व का विरोध है । यानी अभावग्रहण में प्रत्यक्ष का सामर्थ्य नहीं है। अनुमान से भी अन्यहेतुविरह का निश्चय शक्य नहीं है। कारण :- आपने अनुमान को जो त्रिविधलिंग (कार्य - स्वभाव - अनुपलब्धि ) जन्य ही सूचित
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