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________________ खण्ड-४, गाथा-१ ३३३ नाऽसिद्धेः। अथ 'यथा वचनात्मकमनुमानं न वक्तुः प्रमाणम् अथ चानेन वक्ता परान् प्रतिपादयति तथाऽप्रमाणकेन पर्यनुयोगः क्रियत इति' अयुक्तमेतत् – यतो वचनाद् द्वयोरप्यर्थप्रतीतिः प्रमाणभूतैवोत्पद्यते ऽर्थपरिच्छेदकत्वात्, केवलं वक्तुरधिगमस्य निष्पन्नत्वात् प्रमाणं नोच्यते न पुनरप्रमाणं भवति, अप्रामाण्ये वा द्वयोरप्यप्रमाणमिति कथं तथाऽर्थप्रतीतिः ? ___ यदपि ‘परप्रसिद्धनानुमानेन तदेव निषिध्यते' इत्युच्यते तदप्येतेनैव निरस्तम्। यच्च ‘तद्विषयस्य सामान्यादेरभावादनुमानमप्रमाणम्' इत्युक्तम् (३२७-७) तदप्यतद्रूपपरावृत्तवस्तुमात्रप्रसाधकत्वेनानुमानस्य 5 प्रतिपादनात् प्रतिविहितम् । यथोक्तस्य च सामान्यस्याऽयोगव्यवच्छेदेन प्रतिनियतदेशादिसम्बन्धितयाऽनुमान प्रसाधनात् । 'विशेषेऽनुगमाभावः सामान्ये सिद्धसाधनम्' (३२७-८) इत्यपि प्रतिविहितमेव । अवगतता [विकल्प द्वारा व्याप्तिग्रह में निर्विकल्प समर्थ ] ऐसा नहीं कहना कि - 'व्यापकरूप से व्याप्ति के ग्रहणार्थ निर्विकल्प प्रत्यक्ष असमर्थ है' - विकल्प के उत्पादन द्वारा व्यापकरूप से व्याप्ति के ग्रहण में निर्विकल्प समर्थ होता है। दूसरी बात यह है 10 कि - चार्वाक को जब अनुमान प्रमाण मान्य नहीं है तब अप्रमाणभूत प्रतिअनुमान के द्वारा दूसरे वादी के मत ऊपर आक्षेप करना अनुचित है। चार्वाक मत में तो वादी या प्रतिवादी का ‘पर्यनुयोग' प्रमाण नहीं माना जाता। चार्वाक :- परार्थानुमान वचनात्मक होता है जो बौद्धमत में भी (शब्दरूप होने से) प्रमाण नहीं होता। फिर भी बौद्ध वक्ता अप्रमाणभूत वचनस्वरूप परार्थानुमान द्वारा दूसरों के प्रति प्रतिपादन तो 15 करता ही है। इसी तरह हम भी अप्रमाण वचनों के द्वारा दूसरों के प्रति पर्यनुयोग कर सकते हैं। बौद्ध :- यह कथन अनुचित है। हम मानते हैं कि अप्रमाणभूत परार्थानुमानरूप वचनों के द्वारा भी पर को अर्थबोध तो प्रमाणभूत ही होता है, क्योंकि परार्थानुमान अर्थावबोधक होता है। फिर भी परार्थानुमान को प्रमाण इस लिये नहीं मानते, कि वक्ता को उस के पहले ही निर्विकल्प से अर्थबोध निष्पन्न रहता है। ऐसा नहीं है कि वह परार्थानुमान जूठा होता है या अप्रमाण होता है। यदि उस 20 को अप्रमाण कहेंगे तो वादी-प्रतिवादी दोनों के लिये वह अप्रमाण बन जाने पर, वाद में प्रवृत्त वादीप्रतिवादी को एक-दूसरे के वक्तव्य द्वारा विश्वसनीय अर्थावबोध कैसे हो पायेगा ?! [ चार्वाक की पूर्वोक्त विविध युक्तियों का निरसन ] अनुमान प्रमाण न माननेवाले चार्वाक अनुमान के प्रामाण्य का निषेध भी अनुमान से ही करते हैं वह कैसे उचित गिना जाय ? इस प्रश्न के उत्तर में चार्वाक जो बचाव करते हैं कि 'हम अन्य 25 मतसिद्ध अनुमान से उस का निषेध करते हैं, हमारे मत में तो वह असिद्ध ही है' – तो यह बचाव भी अब निरस्त हो जाता है क्योंकि अनुमान के प्रामाण्य का समर्थन किया जा चुका है। यह जो कहा था (३२७-३१) कि - ‘सामान्यादि अर्थ का अस्तित्व न होने से अनुमान प्रमाण नहीं है - यह भी निरस्त हो जाता है। कारण :- अयोगव्यवच्छेदस्वरूप अतव्यावृत्ति आत्मक वस्तुमात्र रूप सामान्य, प्रतिनियत देश-काल से संलग्न रहता है - इस रूप से उस की सिद्धि अनुमान से हो 30 चुकी है। यह जो कहा था (३२७-३२) – 'विशेष को साध्य करेंगे तो हेतु का अनुगम नहीं रहेगा, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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