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खण्ड - ४, गाथा - १
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अस्खलितबुद्धिरूपत्वात्। अथ धर्मिधर्मसमुदायस्य साध्यत्वे हेतोः पक्षधर्मत्वम् अन्वयो वाऽसंभवीति, धर्मिणः साध्यत्वं पक्षधर्मत्वप्रसिद्ध्यर्थं धर्मस्य चान्वयसिद्ध्यर्थमुपचरितमित्युपचरितविषयत्वादनुमानमुपचरितम् । असदेतत्, यतो यत्र धर्मिणि धूममात्रमग्निमात्रव्याप्तमुपलभ्यते तत्रैवाग्निप्रतिपत्तिर्भवन्ती लोके दृश्यत इति कस्यात्रोपचारः ? समुदायस्याप्येवं साध्यत्वं सिद्ध्यत्येव । यदाह - 'केवल एव धर्मो धर्मिणि साध्यस्तथेष्ट - समुदायस्य सिद्धिः कृता भवति' ( ) । इति । पुनरप्युक्तम् ( )
धर्मस्याऽव्यभिचारस्तु धर्मेणान्यत्र दर्श्यते । तत्र प्रसिद्धं तद्युक्तं धर्मिणं गमयिष्यति ।। इति । न चानुमानविषये 'साध्य'शब्दोपचारेऽनुमानमुपचरितं नाम । न चाऽगौणत्वादभ्रान्तत्वात् प्रमाणस्य, अनुमानस्य च भ्रान्तत्वादप्रामाण्यम्; भ्रान्तस्याप्यनुमानस्य प्रतिबन्धबलादुपजायमानस्य प्रामाण्यसिद्धेः । तथाहिप्रत्यक्षस्यापि अर्थस्याऽसंभवेऽभाव एवाऽव्यभिचारित्वलक्षणं प्रामाण्यम् तच्च साध्यप्रतिबद्धहेतुप्रभवस्यानुयानी उपचार किये विना अपने संवेदन से तो उस का निषेध कर नहीं सकता । प्रमाण कभी गौण नहीं मुख्यार्थक ही होता है
“ अनुमान का साध्य धर्मि
यह जो चार्वाकने कहा कि वहाँ अगौणत्व 10 का मतलब क्या है ? यदि अनुपचरितत्व से मतलब है तो हम कहते हैं कि अनुमान अनुपचरित ही है, क्योंकि वह बाधानाक्रान्तबुद्धिस्वरूप है। यदि ऐसा कहा जाय धर्म समुदाय है या धर्मी और धर्म पृथक् पृथक् साध्य है ? यदि समुदाय को साध्य मानेंगे तो ऐसा कोई धर्मी - धर्मउभय का अधिकरण नहीं है जिस में हेतु रहता हो, अतः हेतु में पक्षधर्मत्व सिद्ध नहीं होगा। (धर्मी पर्वत के अधिकरण धरती में धूम नहीं रहता ) । तथा हेतु कभी समुदाय का व्याप्य 15 नहीं होता। नतीजतन, आप को कहना होगा कि धर्मी स्वतः साध्य नहीं है किन्तु हेतु की पक्षधर्मता उपपन्न करने के लिये उस को साध्यकोटि में रखा गया है। तथा व्याप्ति के प्रदर्शन के लिये उसे भी साध्य कोटि में लिया है इसका स्पष्ट अर्थ यही हुआ कि वे दोनों वास्तव साध्य नहीं है किन्तु उपचरित है, उपचरित विषयक होने से अनुमान भी उपचरित हुआ, अत एव वह स्वतन्त्र प्रमाण नहीं हो सकता" तो यह सब गलत है। कारण :- जिस धर्मी 20 में अग्निमात्र से व्याप्त धूममात्र उपलब्ध होता है वहाँ लोक में अग्नि का अवबोध होता दिखाई देता है तो यहाँ उपचरितत्व कैसे जब कि वास्तव ही अग्नि की उपलब्धि होती है ?! अत एव
धर्म भी स्वतः साध्य नहीं है किन्तु
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असम्भव नहीं है, क्योंकि तभी पर्वतधर्मी
यहाँ धर्मी-धर्म के समुदाय को साध्य मानने में कुछ भी में धर्म अग्नि का बोध होता है। किसीने कहा भी है। 'यदि धर्मी में सिर्फ धर्म को ही केवल साध्य मानेंगे तो इस से ही (धर्मी की भी अधिकरणरूप में साध्यता सिद्ध हो जाने से ) समुदाय 25 की भी सिद्धि अर्थापत्ति से प्राप्त है।' किसीने पुनः यह भी कहा है 'एक धर्म का अन्य धर्म के साथ अन्य स्थान में अव्यभिचार प्रकाशित किया जाता है तब वहाँ स्वअव्यभिचारयुक्त धर्मी का बोध करायेगा ।'
प्रस्तुत में प्रसिद्ध
(धर्म)
[ भ्रान्त अनुमान भी व्याप्ति के बल से प्रमाण ]
अनुमान का विषय स्वतः साध्य नहीं है किन्तु 'साध्य' शब्द के उपचार से साध्य है का मतलब यह नहीं कि अनुमान भी उपचरित है। यदि कहा जाय प्रमाण तो अगौण एवं
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इस 30 अभ्रान्त
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