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________________ ३२८ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ तत्र हेतोरनुगमाभावः, अथ सामान्यं तद्विषयः तदा सिद्धसाध्यताप्रसक्तिः । तदुक्तम् – “विशेषेऽनुगमाभाव: सामान्ये सिद्धसाधनम्।' ( ) इति। किञ्च, व्याप्तिग्रहणे पक्षधर्मतावगमे च सत्यनुमानं प्रवर्तते। न च व्याप्तिग्रहणमध्यक्षतः संभवति, तस्य संनिहितमात्रार्थग्राहकत्वेन सकलपदार्थाक्षेपेण व्याप्तिग्रहणेऽसामर्थ्यात् । नाप्यनुमानं तद्ग्रहणक्षमम् तस्यापि व्याप्तिग्रहणपुरस्सरतया तत्र प्रवृत्तेः, अनुमानात्तद्ग्रहणेऽनवस्थे5 तरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः । प्रत्यक्षानुमानव्यतिरिक्तस्य च व्याप्तिग्राहकत्वाऽयोगात्, विशेषविरुद्धानुमानविरोधयोश्च सर्वत्र सुलभत्वात् कुतोऽनुमानस्य प्रामाण्यम् ? . [चार्वाकवादप्रतिविधानम् ] अत्र प्रत्यक्षानुमानप्रमाणद्वयवादिनः सौगताः प्रतिविदधति-प्रमाणेतरसामान्यस्थिते. परबुद्धिपरिच्छित्तेः स्वर्गापूर्वदेवतादिप्रतिषेधस्य चाऽकृतलक्षणाभिः स्वसंवित्तिभिः कर्तुमशक्तेः प्रमाणान्तरसद्भावः सिद्धः । यच्च 10 'प्रमाणस्याऽगौणत्वात्०' (३२७-६) इत्युक्तम् तत्र यद्यगौणत्वमनुपचरितत्वमभिप्रेतम् तदाऽनुमानमप्यनुपचरितमेव मानेंगे तो व्यक्ति से व्याप्त कोई अनगत हेत न होने से अनमान ही नहीं होगा। यदि सामान्य को विषय मानेंगे तो सिद्धसाधन दोष होगा। (पहले तो अनुमान का सामान्यादि अर्थ नहीं है ऐसा कहा है, अतः कल्पितविषयता के कारण अनुमान अप्रमाण- इस अर्थ में फिर सिद्धसाधन दोष है) हम भी कहते हैं कि अनुमान सामान्यगोचर होता है किन्तु वह सामान्य वस्तुभूत नहीं है। प्राचीन ग्रन्थ 15 में कहा है - 'विशेष होने पर अनुगमविरह और सामान्य होने पर सिद्धसाधन ।' [ व्याप्तिग्रह का असंभव ] । दूसरी बात यह है – व्याप्ति का ग्रह एवं हेतु में पक्षधर्मता का अवबोध होने पर ही अनुमानप्रवृत्ति होती है। यहाँ व्याप्तिग्रह कैसे होगा यह बडा प्रश्न है। प्रत्यक्ष से वह सम्भव नहीं है। प्रत्यक्ष तो संनिहित (स्वदेशकाल में प्राप्त) अर्थ का ही बोधक होता है, जब कि व्याप्ति तो संनिहित-असंनिहित 20 सर्व अर्थों को गोद में लेकर प्रवृत्त होती है तो वहाँ प्रत्यक्ष कैसे उन के ग्रहण में सक्षम होगा ? अनुमान भी व्याप्तिग्रहसक्षम नहीं हो सकता। क्योंकि व्याप्तिग्राहक अनुमान में भी व्याप्तिग्रह की आवश्यकता रहेगी, उस का ग्रह अन्य अन्य अनुमान से मानने पर अनवस्था दोष लगेगा। यदि दूसरे अनुमान की व्याप्ति का ग्रह प्रथम अनुमान से मानेंगे तो अन्योन्याश्रय दोष गले पडेगा। प्रत्यक्ष और अनुमान को छोड कर और तो कोई उपाय नहीं है जिस से व्याप्ति का ग्रह हो। उपरांत. प्रत्येक अनुमान में स व्याप्त का ग्रह हो। उपरांत, प्रत्येक अनुमान में विशेषविरुद्ध 25 संज्ञक दोष एवं प्रतिअनुमानविरोध दोष ये दो दोष तो सर्वत्र सुलभ रहेगा, फिर अनुमान को कैसे प्रमाण माना जाय ? (प्रथम दोष की चर्चा प्रथम भाग में हो गयी है (५००-१८)। दूसरा दोष सुगम है।) [ अनुमान प्रमाण की सिद्धि - बौद्ध वक्तव्य ] चार्वाकमत के प्रतिकार में प्रत्यक्षानुमानप्रमाणयुगलवादी बौद्धमतानुयायी अब अपना मत प्रस्तुत करते हैं - प्रत्यक्ष के उपरांत भी अन्य प्रमाण है - उस की साधक तीन युक्ति हैं - १प्रमाणेतर 30 सामान्यस्थिति यानी 'यह ज्ञान प्रमाण यह अप्रमाण' ऐसा भेदव्यवहार प्रत्यक्ष से तो शक्य नहीं है, अतः भेदव्यवहार की उपपत्ति के लिये अनुमान को प्रमाण स्वीकारना होगा। २. अतीन्द्रिय होने पर भी अन्य व्यक्ति के अभिप्राय का पता चलता है, जो बहुत सारे व्यवहारों की नींव है। ३. नास्तिक यदि स्वर्ग, अपूर्व एवं देवतादि का प्रतिषेध करना चाहे तो अनुमान से ही कर सकता है, अकृतलक्षणावाले Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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