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________________ 10 खण्ड-४, गाथा-१ ३२७ णाध्यवसायिना सत्त्वाऽनित्यत्वादेर्ग्रहणे तयोः समधिगतस्वलक्षणविषयत्वात्। शेषमत्र सविकल्पकमध्यक्ष प्रसाधयद्भिश्चिन्तितम् (२१६-३ पर्यन्तम्)। अत्र च यत् शब्दसंयोजनात् प्राक् स्मृत्यादिकमविसंवादिव्यवहारनिवर्तनक्षमं प्रवर्त्तते तन्मतिः, शब्दसंयोजनात् प्रादुर्भूतं तु सर्वं श्रुतमिति विभागः। [ चार्वाकस्य प्रत्यक्षतरप्रमाणनिषेधवादः ] अत्राहुश्चार्वाकाः - भवतु सांव्यवहारिकं विशदमध्यक्षम्, अनुमानादिकं तूपचरितरूपत्वाद् विषयाभावाच्च 5 प्रमाणमनुपपन्नमिति कथं शब्दयोजनात् श्रुतं स्मृत्याद्युपपत्तिमत् ? तदुक्तम्- ‘प्रमाणस्याऽगौणत्वादनुमानादर्थनिर्णयो दुर्लभः' (द्र० प्र०खंडे पृ०२८५-१०) तथा 'अनधिगतार्थपरिच्छित्तिः प्रमाणम्' ( )। न चानुमानमर्थपरिच्छित्तिस्वभावम्, तद्विषयाभिमतस्य सामान्यादेरर्थस्याभावात्। भावेऽपि यदि विशेषः तद्विषयोऽभ्युपगम्यते तदा ज्ञान अनुमानवत् सर्वत्र प्रमाणभूत ही माना जाता है। अतः स्मृति आदि भेदों को भी प्रमाण मानना चाहिये । [ गृहीतग्राहि ज्ञान भी प्रमाण ] यदि कहा जाय – अनुमान (अभिनिबोध) तो अगृहीत स्वलक्षण का अध्यवसायि होने से प्रमाणभूत स्वीकृत है, किन्तु स्मृति आदि गृहीतग्राहि प्रमाण नहीं है - तो यह भी गलत है क्योंकि शब्द की अनित्यता आदि के अनुमान में लिंग की (सत्त्व की) बुद्धि एवं लिङ्गि (अनित्यत्व) की बुद्धि दोनों में अप्रामाण्य का अनिष्ट आ पडेगा। कारण, व्यापकरूप से समग्रतया अगृहीत शब्द स्वलक्षणों के अध्यवसायि व्याप्तिग्राहक प्रमाण से सत्त्व-अनित्यत्व धर्मों का पहले ग्रहण होने के बाद जब अनुमान 15 से उन का ग्रहण होगा तब वह गृहीत सत्त्व-अनित्यत्व का ही ग्रहण होगा, इस प्रकार उन्हें अप्रमाण मानने का अनिष्ट प्रसक्त होगा। प्रत्यक्ष लक्षण के बारे में और जो कुछ वक्तव्य है वह पहले सविकल्प प्रत्यक्ष की सिद्धि की चर्चा में (२१६-१७ पर्यन्त) सोच लिया गया है अतः पुनः कहने की आवश्यकता नहीं। मति एवं श्रुत का स्पष्ट विभाजन ज्ञात करने के लिये व्याख्याकार कहते हैं - शब्दयोजना 20 के पहले, अविसंवादि व्यवहार प्रवर्तन में समर्थ जो स्मृति आदि उदित होते हैं वे मतिज्ञान रूप हैं, किन्तु शब्दयोजना के बाद जो स्मृति आदि उत्पन्न होंगे वे सब श्रुतज्ञानरूप हैं। इति । [चार्वाक की ओर से प्रत्यक्षातिरिक्तप्रमाण का प्रतिक्षेप ] चार्वाक यानी नास्तिकमतानुयायी कहते हैं - सांव्यवहारिक एवं स्पष्ट ज्ञान को अध्यक्ष मानना ठीक है। किन्तु अनुमानादि को प्रमाण मानना अयुक्त है क्योंकि वह नकली एवं विषयशून्य होता 25 है। नकली यानी प्रमाणाभासरूप, एवं विषयशून्य यानी विषय से निरपेक्ष। तो आपने कैसे कहा कि शब्द संयोजन से होनेवाला ज्ञान श्रुतात्मक प्रमाण है तथा स्मृति आदि भी शब्दसंयोजन न हो तब तक अध्यक्ष प्रमाणरूप कैसे हो सकता है ? कहा गया है कि 'प्रत्यक्ष तो अगौण (अनुपचरित) होता है, अनुमान से अर्थनिर्णय दुःशक्य है।' तथा यह भी कहा गया है - 'अगृहीत अर्थ का परिच्छेद प्रमाण होता है।' अनुमान कहाँ अर्थपरिच्छेदरूप है ? उस का जो कल्पित सामान्यादि वस्तु विषय 30 माना गया है वह तो असत् है। यदि अनुमान का कोई विषय माना जाय तो वहाँ प्रश्न यह होगा कि वह विषय विशेष (स्वलक्षण) रूप है ? या सामान्यरूप ? यदि विशेष को (व्यक्ति को) अनुमानगोचर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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