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सन्मतितर्कप्रकरण - काण्ड - २
हेतुफलरूपतया व्यवस्थितस्वरूपाणामेकत्वं कथंचिदविरुद्धम् अन्यथा हेतुफलभावाभावप्रसक्तिरिति प्रतिपादितमनेकशः । धारणास्वरूपा च मतिरविसंवादस्वरूपस्मृतिफलस्य हेतुत्वात् प्रमाणम् स्मृतिरपि तथाभूतप्रत्यवमर्शस्वभावसंज्ञाफलजनकत्वात्, संज्ञाऽपि तथाभूततर्कस्वभावचिन्ताफलजनकत्वात्, चिन्ताऽप्यनुमानलक्षणाभिनिबोधफलजनकत्वात्, सोऽपि हानादिबुद्धिजनकत्वात् । तदुक्तम्- 'मतिस्मृतिसंज्ञाचिन्ताऽभिनिबोध 5 इत्यनर्थान्तरम्' (त.सू.१-१३) अनर्थानन्तरमिति कथंचिदेकविषयम् । 'प्राक् शब्दयोजनात् मतिज्ञानमेतत्, शेषमनेकप्रभेदं शब्दयोजनादुपजायमानमविशदं ज्ञानं श्रुतम्' ( ) इति केचित् ।
सैद्धान्तिकास्तु अवग्रहेहावायधारणाप्रभेदरूपाया मतेर्वाचका पर्यायशब्दाः मतिः स्मृति: संज्ञा चिन्ता अभिनिबोध इत्येते शब्दा: इति प्रतिपन्नाः । स्मृतिसंज्ञाचिन्तादीनां तु कथंचिद्गृहीतग्राहित्वेऽप्यविसंवादकत्वात् अनुमानवत् प्रमाणताऽभ्युपेया । न चानुमानस्याऽगृहीतस्वलक्षणाध्यवसायात् प्रामाण्यं न यथोक्तस्मृत्यादेः; 10 शब्दाऽनित्यत्वादिषु लिङ्ग-लिङ्गिधियोरप्रमाणताप्रसङ्गात्, व्याप्तिग्राहकप्रमाणेन साकल्येनानधिगतस्वलक्ष
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एक मतिज्ञान के चार प्रकार एवं उन में कथंचित् प्रमाण- फल का भेद संगत है । उदा० जैसे (संभवतः बौद्धमत में ) ग्राह्य संवेदन एवं ग्राहक संवेदन का प्रतिभास अलग अलग होने पर भी उन दोनों में एककालीनता एवं एकत्व रह सकता है, उसी प्रकार जैन मत में हेतु-फल भाव से अवस्थित क्रमशाली
अवग्रहादि चार में भी कथंचिद् ऐक्य होने में कोई विरोध नहीं है । यदि ऐसा नहीं माने एकत्व के विरह में हेतु और फल में सम्बन्ध का मेल न खाने से हेतु-फल भाव का उच्छेद हो जायेगा। पहले भी अनेकशः यह बात कही जा चुकी है। मतिज्ञान के जो विविध भेद जैन शास्त्रों में दिखाये हैं वे सब प्रमाण हैं ? हाँ, देखिये अविसंवादि स्मृतिरूप फल की जनिका होने से धारणा स्वयं प्रमाणभूत है। स्मृति भी प्रमाण है क्योंकि ऊहापोहात्मक प्रत्यवमर्शरूप संज्ञा की वह जनिका है। संज्ञा- जिस का स्वरूप है प्रत्यवमर्श, वह भी प्रमाण है क्योंकि तथाविध तर्क स्वभाव 20 जो चिन्ता है उस की वह जनिका है । चिन्ता भी प्रमाण है क्योंकि वह अनुमानस्वरूप अभिनिबोध क्योंकि वह प्रामाणिक हान- उपादान बुद्धि का जनक है । लिये आचार्य उमास्वातिजी ने तत्त्वार्थ सूत्र (१-१३ ) में अभिनिबोध ये सब अर्थान्तररहित हैं । अर्थान्तररूप नहीं
की जनिका है। अभिनिबोध भी प्रमाण है इन विविध स्वरूपों को प्रदर्शित करने के कहा है मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता एवं
है, मतलब कथंचित् एकविषयक हैं। तात्पर्य, ये सब मतिज्ञान के ही विविध भिन्नाभिन्न स्वरूप I
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कुछ आचार्यों का कथन ऐसा है शब्दयोजना से पूर्व में जो इन्द्रियादि द्वारा स्पष्ट ज्ञान होता है वह मतिज्ञान है। ये ही मतिज्ञान के विविध स्वरूप जब शब्दयोजना से अवगुण्ठित हो जाते हैं तब जो अनेक प्रकार वाला अविशद ज्ञान होता है वह मतिज्ञानरूप नहीं किन्तु श्रुतज्ञान होता है । [ मति - स्मृति आदि शब्द मति के पर्यायशब्द - सैद्धान्तिकमत ]
आगमिक व्याख्याताओं का कथन तो ऐसा है कि ये जो मति- स्मृति-चिन्ता - संज्ञा - अभिनिबोध पाँच 30 शब्द तत्त्वार्थसूत्र में कहे हैं वे अवग्रह- इहा- अपाय-धारणा चतुष्टय स्वरूप समुचे मतिज्ञान के पर्यायशब्द है । गृहीतग्राहि ज्ञान को अप्रमाण माननेवाले मीमांसकादि के प्रति व्याख्याकार कहते हैं कि भले ही ये स्मृति-चिन्ता-संज्ञादिभेद गृहीतग्राहि हैं फिर भी अप्रमाण नहीं हैं क्योंकि वे अविसंवादि हैं, अविसंवादि
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