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खण्ड-४, गाथा-१
३२५ स्वभावस्याध्यक्षताव्युदासः, विज्ञानवादिपरिकल्पितस्य च स्वरूपमात्रग्राहकस्य ।
प्रमाण-प्रमेयरूपस्य च सकलस्य क्रमाक्रमभाव्यनेकधर्माक्रान्तस्यैकरूपस्य वस्तुनः सद्भावेऽध्यक्षप्रमाणस्यैकस्य क्रमवर्तिपर्यायवशात् तथाव्यपदेशमासादयतश्चातुर्विध्यमवग्रहेहावायधारणरूपतयोपपन्नम् । तत्र विषयविषयिसंनिपातानन्तरमाद्यं ग्रहणमवग्रहः। विषयस्य तावत् द्रव्य-पर्यायात्मनोऽर्थस्य विषयिणश्च निर्वृत्त्युपकरणलक्षणस्य द्रव्येन्द्रियस्य लब्ध्युपयोगस्वभावस्य च भावेन्द्रियस्य विशिष्टपुद्गलपरिणतिरूपस्यार्थग्रहणयोग्य- 5 तास्वभावस्य च यथाक्रमं सन्निपातो = योग्यदेशावस्थानं तदनन्तरोद्भूतं सत्तामात्रदर्शनस्वभावं दर्शनम् उत्तरपरिणामं स्वविषयव्यवस्थापनविकल्परूपं प्रतिपद्यमानमवग्रहः । पुनः अवगृहीतविषयाकांक्षणमीहा । तदनन्तरं तदीहितविशेषनिर्णयोऽवायः। अवेतविषयस्मृतिहेतुस्तदनंतरं धारणा।
अत्र च पूर्वपूर्वस्य प्रमाणता उत्तरोत्तरस्य च फलतेत्येकस्यापि मतिज्ञानस्य चातुर्विध्यम् कथञ्चित् प्रमाणफलभेदश्चोपपन्नः । यथा च प्रतिभासभेदेऽपि ग्राह्य-ग्राहकसंविदां युगपदेकत्वं तथा क्रमभाविनामवग्रहादीनां 10 आदि मत परिकल्पित प्रत्यक्ष में वास्तव प्रत्यक्षत्व होता नहीं है। ____ मुख्यप्रत्यक्ष का विवरण पहले सर्वज्ञसिद्धि के रूप में हो चुका है - इस लिये अब गौण प्रत्यक्ष का विवरण किया जाता है। प्रमाण-प्रमेयात्मक सकल पदार्थ व्यक्तिशः एकरूप होते हुए भी अनेकधर्मों से अवगुण्ठित होते हैं और वे धर्म भी कुछ तो समानकाल भावि (यानी कालक्रमरहित) होते हैं तो कुछ धर्म पूर्वोत्तरकालक्रम भावि होते हैं। इस प्रकार क्रमाऽक्रमभावि धर्मों का ग्राहक गौण प्रत्यक्ष 15 भी अपने क्रमाक्रमभावि पर्यायों के कारण, कभी अवग्रह, कभी ईहा, कभी अपाय और कभी धारणा ऐसी भिन्न भिन्न संज्ञाओ से निर्दिष्ट होने के कारण, एक ज्ञान की चतुर्विधता असंगत नहीं है।
अवग्रह :- विषय एवं विषयि का संनिपात (सम्पर्क) होने के बाद जो सर्वप्रथम ज्ञान होता है उसे 'अवग्रह' कहा जाता है। (यह गौण प्रत्यक्ष का आद्य प्रकार है।)
अवग्रह का विशेषार्थ :- द्रव्य-पर्यायस्वरूप अर्थ को यहाँ विषय कहते हैं। विषयि है इन्द्रिय। 20 प्रत्येक इन्द्रिय के दो भेद है १-द्रव्येन्द्रिय, २-भावेन्द्रिय । द्रव्येन्द्रिय के दो भेद हैं निर्वृत्ति इन्द्रिय और उपकरणेन्द्रिय। भावेन्द्रिय के भी दो प्रकार है - लब्धि इन्द्रिय और उपयोगेन्द्रिय। द्रव्येन्द्रिय है वह विशिष्टपुद्गलपरिणामस्वरूप है। भावेन्द्रिय वस्तुग्रहणयोग्यतास्वरूप है। इन विषय-विषयि का क्रमिक संनिपात, यानी योग्यदेशावस्थान होने पर प्रथम तो वस्तु की सत्ता मात्र का दर्शन होता है. बाद में जो अपने विषय का प्रतिपादन (ग्रहण) करनेवाले विकल्परूप में परिणत होने वाला है, ऐसा स्वग्राहि 25 ज्ञान अवग्रहप्रत्यक्ष है।
ईहा :- अवग्रह से दृष्ट विषय के बारे में विशेषान्वेषणरूप ज्ञान ईहाप्रत्यक्ष है। अवाय :- ईहा से अन्वेषित विशेष का निश्चयात्मक ज्ञान अवायप्रत्यक्ष है। धारणा :- अवायनिश्चित विशेषविषय का भविष्य में स्मरण करानेवाला ज्ञान धारणा है।
[ मतिज्ञान के भेदों में हेतु-फलभाव निरूपण ] इन चार भेदों में पूर्व-पूर्व भेद प्रमाणरूप यानी प्रमा के करणरूप है जिन का फल हैं उत्तरोत्तर भेद । इस प्रकार, सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष, जिस का जैन परिभाषानुसार मतिज्ञान में अन्तर्भाव है, उस
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