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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - २
[ जैनसिद्धान्ते प्रत्यक्षस्य सभेदस्य स्वरूपम् ]
किं पुनस्तदनवद्यम् ? 'स्वार्थसंवेदनं स्पष्टमध्यक्षं मुख्यगौणतः ' ( ) इत्येतत् । अत्र च मुख्यमतीन्द्रियज्ञानमशेषविशेषालम्बनमध्यक्षं सर्वज्ञसिद्धौ प्रतिपादितम् ( प्रथम खंडे पृ० २२० तः २६६ ) । गौणं तु संव्यवहारनिमित्तमसर्वपर्यायद्रव्यविषयमिन्द्रियानिन्द्रियप्रभवमस्मदाद्यध्यक्षं विशदमुच्यते । अस्य च स्वयोग्यो ऽर्थः 5 स्वार्थः, तस्य संवेदनं विशदमुच्यते तया निर्णयस्वरूपम् । तेन संशय-विपर्ययाऽनध्यवसायलक्षणस्य ज्ञानस्य संव्यवहारानिमित्तस्य नाध्यक्षताप्रसक्तिः । नाप्यज्ञानरूपस्येन्द्रियादेरविकल्पस्य वा सौगतपरिकल्पितस्येन्द्रियजमानस-योगिज्ञानस्वसंवेदनरूपस्य । स्वं चार्थश्च स्वार्थी, तयो: संवेदनं स्वार्थसंवेदनमित्यस्यापि समासस्याश्रयणात् अर्थसंवेदनस्यैव जैमिनी-वैशेषिकादिपरिकल्पितस्य परोक्षस्य तदेकार्थसमवेतानन्तरज्ञानग्राह्यस्याऽसंविदित[ जैनसिद्धान्तानुसारि प्रत्यक्षलक्षण ]
अन्य दर्शनों के प्रत्यक्ष के लक्षण को आपने सदोष करार दिया, तो बतलाओ कि निर्दोष लक्षण क्या है ?
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व्याख्याकार अपने जैनदर्शन के आधार पर प्रत्यक्ष का निर्दोष लक्षण प्रदर्शित करते हैं। 'मुख्य या गौण स्वरूप जो स्व-अर्थ का अथवा स्व एवं अर्थ का स्पष्ट संवेदन है वह अध्यक्ष है' यह प्रत्यक्ष का निर्दोष लक्षण है ।
एक तो सर्वज्ञ प्रत्यक्ष
हुआ अतीन्द्रिय ज्ञान है
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जो 'मुख्य' शब्द से अभिप्रेत है । वह अशेष विशेषों को विषय करता इस तथ्य का प्रतिपादन प्रथम खंड में ( पृ० ५३ तः ६९) सर्वज्ञसिद्धि
प्रकरण में हो चुका है ।
दूसरा गौण किन्तु विशद (यानी स्पष्ट ) अध्यक्ष यह है जो संव्यवहार ( = निश्चयपूर्वक हानोपादान) का निमित्त होता है, असर्व पर्याय एवं असर्व द्रव्यों को विषय करता है, इन्द्रियजन्य या मनोजन्य 20 होता है। हम लोगों का (छद्मस्थों ) प्रत्यक्ष इसी प्रकार का होता है ।
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इस प्रत्यक्ष का विषय है स्वयोग्य अर्थ यानी स्वार्थ । उस का स्पष्टरूप से निर्णय हो यही है संवेदन | 'स्पष्टरूप से ऐसा कहने का प्रयोजन यह है कि संशयज्ञान, विपर्ययज्ञान और अनध्यवसायात्मक ज्ञान, जो संव्यवहार का निमित्त बनने योग्य नहीं, उस का व्यवच्छेद करना है। उपरांत, अज्ञान ( अचेतनरूप) इन्द्रियादि का भी व्यवच्छेद करना है। तथा बौद्धमत कल्पित निर्विकल्प ज्ञान के प्रत्यक्षत्व का भी 25 व्यवच्छेद अभीष्ट है, क्योंकि वह संव्यवहार का निमित्त नहीं है । एवं बौद्धकल्पित निर्विकल्प स्वसंवेदनरूप
इन्द्रियजन्य या मनोजन्य योगिज्ञान का भी व्यवच्छेद अभीष्ट । कर्मधारय समास के बदले 'स्वार्थ' पद में द्वन्द्व समास का आश्रय ले कर ऐसा अर्थ किया जाय कि स्व (यानी ज्ञान स्वयं ) और अर्थ (विषय) दोनों का ग्राहक जो संवेदन- वह स्वार्थसंवेदन है तो इस के द्वारा ज्ञान को परोक्ष माननेवाले मीमांसकों के मत का निरसन अभीष्ट है क्योंकि मीमांसकमत में ज्ञान को, मात्र अर्थग्राहि एवं अपने 30 समान अधिकरण में समवेत उत्तरज्ञान के द्वारा ग्राह्य एवं अस्वसंविदित माना गया है। वैशेषिक मत में भी ज्ञान को अस्वसंविदित परोक्ष माना गया है । इस लिये उस के मत का भी निरसन हो जाता है । उपरांत विज्ञानवादी बौद्ध बाह्यार्थ को न मानते हुए ज्ञान को मात्र अपने स्वरूप का ही ग्राहक मानते हैं, उन का भी निरसन यहाँ 'अर्थ' शब्द से अभीष्ट है। तात्पर्य, बौद्ध, मीमांसक और वैशेषिक
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