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खण्ड-४, गाथा-१
३२३ भावेऽपि यथावस्थितार्थाधिगतिः उपलभ्यत इति न सा अक्षादिकार्या। न चाऽसावपि मनोऽक्षकार्या, परपरिकल्पितमनोऽक्षस्य प्रागेव निषिद्धत्वात्। अत एव 'चक्षुषाऽधिगतम्' इति तस्य साधकतमत्वाभिमानः न साधकतमताव्यवस्थापकः, तदभावेऽपि विषयाधिगतिसद्भावात्। 'ज्ञानेनाऽधिगतः' इत्यभिमानस्तु ज्ञानस्य साधकतमताव्यवस्थापक एव, ज्ञानाभावे तदधिगतेरभावात् । परम्परया तूपचरितमाधिगतौ साधकतमत्वमक्षादेर्न प्रतिषिध्यते, अस्मदादिप्रत्यक्षस्य स्वार्थाधिगतिस्वभावस्याक्षादिप्रभवत्वात्। 'तत् इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्' 5 (तत्त्वार्थ १-१४) इति वचनात् । एतेन प्रातिभस्याऽनक्षप्रभवस्यापि स्वार्थाधिगतिरूपस्य विशदतयाऽध्यक्षप्रमाणता प्रतिपादिता दृष्टव्या। तेन यत् तत्रेन्द्रियार्थसंनिकर्षजत्वाभावप्रतिपादनेन मीमांसकैर्दूषणमभ्यधायि (२७०३) यच्च नैयायिकैर्मनोऽक्षार्थजत्वसमर्थनेनोत्तरं प्रतिपादितं (२७०-६) तदुभयमप्ययुक्ततया व्यवस्थितम् । शेषं त्वत्र यथास्थानं प्रतिविहितत्वाद् न प्रत्युच्चार्य दूष्यते। तद् नैकान्तवादिप्रकल्पितमध्यक्षलक्षणमनवद्यम् । विषयविबोध दिखता है जो इन्द्रियजन्य नहीं है। ऐसा नहीं कहना कि 'वह भी मनःस्वरूप इन्द्रिय 10 जन्य ही है', क्योंकि न्यायदर्शन-प्रदर्शित लक्षणवाले मनःस्वरूप इन्द्रिय का तो पहले ही हम खण्डन कर आये हैं। इसी लिये तो उन लोगों का जो यह 'चक्षु से जान लिया' – इस प्रतीति से चक्षु में साधकतमत्व की प्रतीति का अभिमान है वह वस्तुतः चक्षु में साधकतमत्व का साधक नहीं हो सकता, क्योंकि पूर्वोक्तरीत्या चक्षु इन्द्रिय के विना भी सत्य स्वप्नज्ञान में विषय का अवबोध अनुभवसिद्ध है। दूसरी ओर यह जो बुद्धि है कि 'ज्ञान से जान लिया', वह ज्ञान में साधकतमत्व की साधक 15 है, क्योंकि बिना ज्ञान के विषयावबोध कभी नहीं होता।
[इन्द्रियों में औपचारिक साधकतमत्व का अनिषेध । यहाँ एक स्पष्टता जरूरी है कि इन्द्रियाँ साक्षात् तो विषयबोध में साधकतम नहीं है फिर भी विषयबोध के प्रति परम्परागत यानी औपचारिक साधकतमत्व का जैन मनीषी निषेध नहीं करते, स्वपर अर्थावबोध स्वभाववाले हम लोगों के प्रत्यक्ष का जन्म इन्द्रियादि से ही होता है। तत्त्वार्थ सूत्र 20 (१-१४) में भी वाचकवर उमास्वाति महर्षिने कहा है कि 'जो सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है वह इन्द्रिय
और मन के निमित्त से होता है।' इन्द्रिय में साक्षात् साधकतमत्व का निषेध करने का तात्पर्य यह है कि विना इन्द्रिय भी स्व-पर अर्थव्यवसायि एवं विशदस्वरूप जो प्रातिभ (प्रतिभाजन्य) ज्ञान किसी योगिपुरुष को होता है वह भी प्रत्यक्षप्रमाणरूप ही है, भले ही वहाँ इन्द्रिय का व्यापार न रहे। अत एव प्रातिभज्ञान में प्रत्यक्षत्व का निषेध करने के लिये मीमांसकों ने जो वहाँ इन्द्रियार्थसंनिकर्षजन्यत्व 25 के अभाव की आपत्ति दी है वह (२७०-२१) असंगत ही है। एवं नैयायिकों ने प्रातिभज्ञानरूप प्रत्यक्ष में भी मनःस्वरूप इन्द्रियार्थजन्यत्व के समर्थन द्वारा मीमांसकों के प्रति उत्तर दिया है (२७०-२६) वह भी निरर्थक है क्योंकि प्रत्यक्ष में साक्षात् इन्द्रियसंनिकर्ष का प्रभाव अमान्य है।
___प्रत्यक्ष लक्षण की चर्चा में नैयायिकों ने पूर्वपक्ष के रूप में पहले (इस ग्रन्थ में) जो कुछ कथन किया है उन सभी का प्रायः यथावसर प्रतिविधान एक या दूसरे रूप में यहाँ किया जा चुका है 30 इस लिये उन की पंक्ति-पंक्ति को ले कर दोषारोपण का प्रयास बार बार नहीं किया जाता। सुज्ञ सुधी स्वयं समझ लेंगे। निष्कर्ष, एकान्तवादियों का उक्त प्रत्यक्षलक्षण निर्दोष नहीं है।
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