SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 341
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२२ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ न च प्रमातृ-प्रमेययोरन्तरत्वे सति विशिष्टप्रमितिजनकं यत् तत् प्रत्यक्षमिति विशेषणात् प्रमातृप्रमेयव्यतिरिक्तस्य तस्य प्रमाणता, संनिकर्षादिप्रमाणत्वाभिमतव्यतिरिक्तस्य तज्जनकस्य प्रमाणतेत्यपि वक्तुं शक्यत्वात्। न च सामग्र्यस्य संनिकर्षस्य वा साधकतमत्वात् प्रमाणता, साधकतमत्वस्य प्रमाणसामान्यलक्षणप्रस्तावे (६३-८) निरस्तत्वात्। यदपि 'इन्द्रियादेरचेतनस्य प्रमाणत्वं' प्रतिपादितम् (२४८-४) तदप्यतिप्रसङ्गतो5 ऽघटमानकम् । यदपि ज्ञानसद्भावे न काचित् तज्जन्या विषयाधिगतिः, अक्षादिसद्भावे तु विषयाधि गतिर्भिन्नोपजायत इत्यक्षादेरेवाधिगतिजनकस्य प्रमाणता' (२५२-७) इति - तदप्यसमीक्षिताभिधानम्, ज्ञानस्यैव यथावस्थितार्थाधिगतिस्वभावतया प्रमाणत्वात्, प्रमाण-फलाभेदाविरोधस्य च प्रतिपादितत्वात्, अक्षादिसद्भावे तु विषयाधिगतेरसिद्धत्वात्।। तथाहि- व्यापारवदक्षादिसद्भावेऽपि व्यासक्तचेतसो न विषयाधिगतिः सत्यस्वप्नज्ञाने त्वक्षादिव्यापारा10 न्यायसूत्र के लक्षण में 'यतः' ऐसा पदाध्याहार कर के जो पहले (२४५-१२) फल के विशेषण-पक्ष का आशरा दिखाया गया था वह भी असंगत है। कारण ‘यतः' पद का अध्याहार कर के इन्द्रियों की अध्यक्षप्रमाणता असंगत इस लिये है कि इन्द्रिय जड हैं, परिच्छेद (ज्ञान) स्वरूप नहीं है, उदा. प्रमेय और प्रमाता भी (न्याय मत में) ज्ञान स्वरूप न होने से, विशिष्ट प्रमाजनक होने पर भी अध्यक्षप्रमाणरूप नहीं है। यदि परिष्कार किया जाय कि 'प्रमेय-प्रमाता से भिन्न जो विशिष्ट प्रमाजनक हो वह प्रत्यक्ष है' - 15 तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि विना किसी आधार यदि प्रमेय-प्रमाता के भेद की विवक्षा करने पर तो संनिकर्षादि - जो आप को प्रत्यक्षप्रमाण रूप से इष्ट है – के भेद का भी अन्तर्भाव कर के उन से जो भिन्न विशिष्टप्रमाजनक हो उसे प्रमाण कहा जाय - ऐसा भी लक्षण करने की विपदा होगी। साधकतमत्व को लक्षण बना कर कारकसमग्रता अथवा संनिकर्ष को साधकतम मान कर प्रमाण ठहराया जाय तो यह भी गलत है क्योंकि पहले (६३-२०) प्रमाण सामान्य के लक्षण की विस्तृत 20 चर्चा में साधकतमत्व का निरसन किया गया है। न्यायदर्शन में अचेतन (जड) इन्द्रियादि को 'प्रमाण' माना गया है (२४८-२२) वह भी जड विषयादि में अतिव्याप्ति होने के कारण असंगत ही है। यह जो पहले (२५२-२६) कहा था – 'ज्ञान के होते हुए भी कोई ज्ञानजन्य विषयबोध प्रतीत नहीं होता, जब कि इन्द्रियादि के रहते स्वतन्त्र विषयभान प्रतीत होता है। अत एव विषयबोधकारक इन्द्रियादि को ‘प्रमाण' कह सकते हैं।' - यह भी बिना सोच के किया गया कथन है। कारण, जो यथार्थ 25 वस्तुबोधस्वभावरूप होता है वही 'प्रमाण' होता है, ज्ञान ही यथार्थवस्तुबोधरूप होता है न कि इन्द्रियादि, इस लिये प्रमाण हमेशा ज्ञानात्मक ही होता है न कि जड इन्द्रियादि। - "ज्ञान तो प्रमाण का फल है, उसे प्रमाण मानेंगे तो प्रमाण और फल का अभेद हो जायेगा।” – ऐसी आशंका व्यर्थ है क्योंकि एक ही वस्तु में (ज्ञान में) प्रमाणत्व और फलत्व का समावेश मानने में कोई विरोध नहीं है। यह पहले प्रदर्शित हो चुका है। इन्द्रियादि के रहते विषय का भान होने की बात तथ्यहीन है क्योंकि 30 इन्द्रिय के होने पर भी कई बार (व्यासंगकाल में) विषयबोध नहीं होता है, यह सर्वविदित है। [अक्षादिव्यापार यथार्थ अर्थाधिगम का कारण नहीं है ] कैसे यह देखिये - व्यापारयुक्त इन्द्रियादि के रहते हुए भी चित्त व्याक्षिप्त होने पर विषयावबोध नहीं होता है। (अन्वयव्यभिचार हुआ)। सत्य स्वप्नज्ञान में इन्द्रियादिव्यापार के विरह में भी यथार्थ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy