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________________ खण्ड-४, गाथा-१ ३२१ प्रतिभाति तथाप्यव्यभिचारिपदापोह्यतैव मिथ्याज्ञानत्वात् । एवं पुरुषत्वलक्षणप्रतिभासेऽप्येतदेव दूषणं वाच्यम्। उभयस्यापि तात्त्विकस्य प्रतिभासे न तज्ज्ञानस्य सन्देहरूपतेति नापोह्यता। उभयस्याप्यतात्त्विकस्य प्रतिभासे तद्विषयज्ञानस्य विपर्ययरूपता न सन्देहात्मकतेत्यव्यभिचारिपदापोह्यतैव। अथैकस्य धर्मस्य तात्त्विकत्वम् अपरस्याऽतात्त्विकत्वम् - एवमपि तात्त्विकधर्मावभासित्वात् तज्ज्ञानमव्यभिचारि अतात्त्विकधर्मावभासित्वाच्च तदेव व्यभिचारीति एकमेव ज्ञानं प्रमाणमप्रमाणं च प्रसक्तम् । न च सन्दिग्धाकार-प्रतिभासित्वात् सन्देह- 5 ज्ञानमिति वाच्यम्, यतो यदि सन्दिग्धाकारता परमार्थतोऽर्थे विद्यते तदाऽबाधितार्थगृहीतिरूपत्वाद् न सन्देहज्ञानता सत्यार्थज्ञानवत् । अथ न विद्यते तदाऽव्यभिचारिपदेन तद्ग्राहिज्ञानस्यापोदितत्वाद् व्यवसायग्रहणं तद्व्यवच्छेदायोपादीयमानं निरर्थकम् । अथ न किञ्चिदपि तत्र प्रतिभाति न तर्हि तस्येन्द्रियार्थसंनिकर्षजत्वमिति न तद्व्यवच्छेदाय व्यवसायात्मकपदोपादानमर्थवत्। तन्न तदपि प्रत्यक्षलक्षणे उपादेयम्। __यदपि 'फलस्वरूपसामग्रीविशेषणत्वेनाऽसंभवान्नेदं लक्षणम्' इति (२४५-१) तद्युक्तमेवाभिहितम्, 10 अस्य पक्षत्रयेऽप्यघटमानत्वात् । यदपि 'यतः' इत्यध्याहारात् (२४५-३/२५६-४) फल-विशेषणपक्षाश्रयणम् तदप्यसंगतम्; यतोऽपरिच्छेदस्वरूपस्याध्यक्षप्रमाणता विशिष्टप्रमितिजनकत्वेन प्रमेय-प्रमात्रोरिवाऽसङ्गता। पुरुषत्व या दोनों ? यदि स्थाणुत्व भी वास्तव ही दिखता है तब तो वह सम्यग्ज्ञान है, फिर उस के व्यवच्छेद का प्रयास क्यों ? यदि स्थाणुत्वधर्म अवास्तव दिखता है तब तो अव्यभिचारी पद से ही उस का व्यवच्छेद हो जाता है क्योंकि वह मिथ्याज्ञान है। इसी तरह वास्तव/अवास्तव पुरुषत्व धर्म 15 के लिये भी ये ही दोष प्रसक्त होंगे। उभय पक्ष में भी यदि तात्त्विक उभय का प्रतिभास है तो उभय का ज्ञान संदेहरूप ही नहीं होने से वह व्यवच्छेद्य भी नहीं है। यदि उभय अवास्तव है ओर दिखता है तब तो उभयसंबन्धि ज्ञान विपर्ययरूप ही है न कि संदेहात्मक। विपर्यय का व्यवच्छेद तो अव्यभिचारीपद से ही सिद्ध है। यदि एक धर्म को तात्त्विक और दूसरे को अतात्त्विक मानेंगे तो एक ही ज्ञान तात्त्विक एवं अतात्त्विक धर्मों का अवभासक होने से क्रमशः अव्यभिचारि एवं व्यभिचारि, तथा वही एक ज्ञान 20 अव्यभिचारि होने से प्रमाण, व्यभिचारि होने से अप्रमाण - ऐसा विरुद्धधर्माध्यास प्रसक्त होगा। ऐसा कहना कि - 'संशयज्ञान संदिग्धाकारभासक होने से संशयरूप होता है' - तो ऐसा कथन अयुक्त है, क्योंकि यदि विषय वस्तु में संदिग्धाकारता परमार्थतः विद्यमान है तब तो सत्यार्थज्ञान की यह ज्ञान भी अबाधितार्थग्रहणरूप होने से संदेहरूप नहीं हो सकता। यदि विषय वस्तु में संदिग्धाकारता नहीं है तब तो संदिग्धाकारताग्राहि ज्ञान का अव्यभिचारिपद से ही व्यवच्छेद हो जाने 25 से, उस के व्यवच्छेद के लिये व्यवसायपद का ग्रहण व्यर्थ ठहरेगा। यदि वहाँ कुछ भी भास नहीं होता ऐसा कहेंगे तो न वहाँ ज्ञान होगा, न तो वहाँ इन्द्रियार्थ संनिकर्ष होगा, तो किस के लिये व्यवसायपद प्रयोग सार्थक होगा ? निष्कर्ष, प्रत्यक्ष के लक्षण में व्यवसायपद का पठन अयोग्य है। [ न्यायदर्शनोक्त प्रत्यक्षलक्षण समर्थन के विविध वक्तव्यों की समीक्षा ] न्यायसूत्र के प्रत्यक्षलक्षण के विरोध में पहले जो कहा था – लक्षणान्तर्गत विशेषण फल, स्वरूप 30 या सामग्री तीन में से किसी के लिये संगत नहीं है, वह तो बिलकुल ठीक ही कहा है, क्योंकि तीनों पक्षों में कोई विशेषण घटित नहीं होता। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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