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________________ ३३० सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ मानस्याप्यस्तीति कथं न प्रामाण्यम् ? तदुक्तम् - (द्रष्टव्यं प्र. खंडे पृ. २९६-३) अर्थस्याऽसंभवेऽभावात् प्रत्यक्षेऽपि प्रमाणता। प्रतिबद्धस्वभावस्य तद्धेतुत्वे समं द्वयम् ।। इति। तेन ‘अनधिगतार्थपरिच्छित्तिः प्रमाणम्' इत्यादि यदुक्तम् (३२७-७) तदप्यपास्तम्, यतः सर्व एव प्रेक्षावान् प्रवृत्तिकामः प्रमाणमन्वेषते प्रवृत्तिविषयार्थप्रदर्शकम् । अर्थक्रियासमर्थश्चार्थः प्रवृत्तिविषयः । अनागतं च प्रवृत्तिसाध्यमर्थक्रियासामर्थ्यमर्थस्य नाध्यक्षमधिगन्तुं समर्थम् भाविनि प्रमाणव्यापाराऽसम्भवात्, तत् कथमस्यार्थपरिच्छेदमात्रात् प्रामाण्यं युक्तम् ? अतः स्वविषयेऽध्यक्षं तदुत्त्पत्त्या ‘यत् पूर्वं मया प्रबन्धेनार्थक्रियाकारि प्रतिपन्नं वस्तु तदेवेदम्' इति निश्चयं कुर्वत् प्रवर्तकत्वात् प्रमाणम्। अनुमानेऽपि चैतत् समानम्, यतोऽर्थक्रियाकारित्वेन निश्चितादर्थात् पारम्पर्येणोत्पत्तिरेवाऽव्यभिचारित्वलक्षणं प्रामाण्यमनुमानेऽप्यध्यक्षवत् कथं नाऽविप्रतिपत्तिविषयः ? प्रतिपद्यत एव चाग्न्यनुमानस्य तदुत्पत्त्या बाह्यवळ्यध्यवसायेन लोकोऽध्यक्षवत् 10 होता है जब कि अनुमान तो भ्रान्त होता है (चूंकि वह स्वलक्षणग्राहि नहीं होता)। अतः अप्रमाण है - यह भी गलत कथन है, क्योंकि व्याप्ति के सामर्थ्य से उत्पन्न होने के कारण भ्रान्त अनुमान भी प्रमाण ही होता है। प्रत्यक्ष का प्रामाण्य कौन सा होता है - अर्थ न हो तो वह स्वयं भी उदित नहीं होता, यही है अव्यभिचारित्वरूप प्रत्यक्ष का प्रामाण्य । अनुमान में भी ऐसा प्रामाण्य असंगत नहीं है - साध्य से व्याप्त हेतु से उत्पत्ति यही अव्यभिचारित्व है जो अनुमान में अक्षुण्ण है फिर 15 उसे क्यों प्रमाण न माना जाय ? कहा भी है - ‘प्रत्यक्ष में भी प्रामाण्य यही है अर्थ के विरह में न होना। प्रतिबद्ध स्वभाववाले अनुमान में भी प्रामाण्य का निमित्त वही है - इस प्रकार प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों समान ही हैं।' ( ) [प्रत्यक्ष की तरह अनुमानप्रामाण्य की संगति । __ अनुमान का प्रामाण्य अविरुद्ध है इस लिये उस के विरोधार्थ जो पहले चार्वाकने (३२७-३०) 20 कहा था कि 'प्रमाण अगृहीतार्थग्राही होता है' वह निरस्त हो जाता है। उस का यह कारण है कि सभी बुद्धिमान् लोग प्रवृत्ति की अभिलाषा होने पर प्रवृत्ति के विषयभूत अर्थ के प्रदर्शक प्रमाण की अपेक्षा करते हैं। प्रवृत्तिविषयभूत भावि अर्थ के अर्थक्रियासामर्थ्य का पता तो भाविप्रवृत्ति से सिद्ध होगा, अत एव भावि सामर्थ्य का पता लगाने में प्रत्यक्ष समर्थ नहीं होता क्योंकि भावि विषय के प्रति (प्रत्यक्ष) प्रमाण का व्यापार सम्भव नहीं होता। जब तक प्रत्यक्ष के विषय का अर्थक्रियासामर्थ्य 25 प्रच्छन्न है तब तक सिर्फ अर्थपरिच्छेदमात्र से उस को प्रमाण मान लेना कहाँ तक उचित है ? फलितार्थ यह हुआ कि सिर्फ अर्थपरिच्छेदमात्र के बल से नहीं किन्तु अपने विषय में प्रत्यक्ष उत्पन्न होने के साथ ‘पहले मैंने प्रवृत्ति प्रक्रिया के द्वारा जो अर्थक्रियाकारि वस्तु प्राप्त की थी वही (वैसी ही) यह है' ऐसा निश्चय करानेवाला अध्यक्ष प्रवृत्तिकारक बन जाने से प्रमाण माना जाता है। अनुमान में भी यह बात समान है। कारण, अनुमान भी ‘अर्थक्रियाकारिरूप से निश्चित' अर्थ से परम्परया उत्पन्न 30 होता है वही उस का अव्यभिचारित्वरूप प्रामाण्य है। इतनी समानता अक्षुण्ण होने पर प्रत्यक्ष की तरह अनुमान का प्रामाण्य विवादास्पद कैसे माना जाय, अस्वीकारपात्र कैसे कहा जाय ? लोग भी प्रत्यक्ष की तरह, बाह्य अग्नि के अध्यवसाय द्वारा, बाह्य अग्नि से परम्परया उत्पन्न अग्नि के अनुमान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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