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________________ ३१५ खण्ड-४, गाथा-१ तत्रेन्द्रियं तस्य च दहनेन सह प्रतीयमानेन नास्ति सम्बन्धः; इहापि तर्हि प्रतीयमानोदकेन न सम्बन्धश्चक्षुष:मरीचीनां तु न प्रतीयमानत्वमिति ताभिरपि कथं तस्य सम्बन्धः ? यच्च- “सामान्योपक्रमं विशेषपर्यवसानम् 'इदमुदकम्' इत्येकं ज्ञानम्, तस्य सामान्यवानर्थः स्मृत्युपस्थापितविशेषापेक्षो जनकः, तिरस्कृतस्वाकारस्य परिगृहीताकारान्तरस्य सामान्यविशिष्टस्य वस्तुनो जनकत्वे तथाविधस्येन्द्रियेण सम्बन्धोपपत्तेरिन्द्रियार्थसंनिकर्षजो विपर्ययः” (२२८-१) इति - तदत्यन्तमसम्बद्धम्, 5 पराभ्युपगमेनाऽस्याऽनुपपत्तेः । तथाहि- 'सामान्योपक्रमम्' इति यदि सामान्यविषयम् ‘इदम्' इति ज्ञानम्, तदा मरीच्युदकयोः साधारणमेकं सामान्यं 'इदम्' इति ज्ञानस्य विषयो वक्तव्यः । न चैकान्ततो व्यक्तिभिन्नमभिन्नं वा सामान्यं सम्भवति, संभवेऽपि सत्त्व-द्रव्यत्वव्यतिरिक्तस्य मरीच्युदकसाधारणस्य तस्य न सद्भावः, सत्त्वद्रव्यत्वादेश्च ज्वलनादावपि सद्भाव इति न मरीच्युदकसाधारणत्वम्। तरङ्गायमाणत्वं तूभयसाधारणं इन्द्रियसंनिकर्षजन्य यानी प्रत्यक्षरूप मानना होगा। 10 यदि कहें कि – 'वहाँ मन रूप इन्द्रिय का आत्मा के साथ सम्बन्ध है, प्रतीयमान अग्नि के साथ नहीं है इसलिये उस के ज्ञान को इन्द्रियसंनिकर्षजन्य नहीं मानेंगे यानी अनुमेय अग्नि के ज्ञान में प्रत्यक्षत्व का अनिष्ट प्रसंग नहीं होगा' - तो यहाँ भी फिर कह सकते हैं कि चक्षु इन्द्रिय का प्रतीयमान जल के साथ संनिकर्ष नहीं है, - और मरीचियों की सत्ता होने पर भी वे प्रतीयमान नहीं है, तो उन के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध कैसे स्वीकार किया जाय ? उस ज्ञान को इन्द्रियार्थ 15 संनिकर्षजन्य प्रत्यक्ष कैसे स्वीकार किया जाय ? तब वहाँ अतिव्याप्ति के निवारणार्थ 'अव्यभिचारि' पदप्रयोग का प्रयोजन क्या ? [इन्द्रियार्थसंनिकर्ष से भ्रम की उपपत्ति का व्यर्थप्रयास ] विपर्यय (यानी भ्रम) को इन्द्रियार्थसंनिकर्षजन्य सिद्ध करने के लिये पहले (२२८-२९) जो यह कहा था - "सामान्यधर्म से उपक्रमवाला एवं विशेषधर्म में पर्यवसित होनेवाला 'यह जल है' ऐसा जो 20 (भ्रम) ज्ञान होता है उस का जनक तो ऐसा सामान्यवान अर्थ ही होता है जिस को अपेक्षित होता है स्मृति से उपस्थापित विशेष। अपना (शुक्तित्वरूप) आकार जहाँ तिरस्कृत रहता है और अन्याकार (रजत्व) का जिसने स्वांग धारण किया है वैसी जो सामान्यधर्मअवगुण्ठित वस्तु है उस के (सीप के) साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध निर्बाध हो सकता है, अत एव तज्जन्य विपर्यय 'इन्द्रियसंनिकर्षजन्य' ही होता है।” – यह तो अत्यन्त असंगत ही है। न्यायदर्शन की मान्यता के अनुसार इस का समर्थन शक्य 25 नहीं है। देखिये - 'सामान्यधर्म से उपक्रमवाला' इस का क्या मतलब ? सामान्य को विषय क ऐसा ज्ञान, यानी 'यह' ऐसा आंशिक ज्ञान । अब यहाँ बोलिये कि मरीचि और उदक दोनों में साधारण हो ऐसा 'यह' इस आंशिक ज्ञान का सामान्य विषय कौन है ? पहले कई बार कह दिया है कि व्यक्ति से सर्वथा भिन्न या सर्वथा अभिन्न होने वाला कोई सामान्य पदार्थ सम्भवी ही नहीं है। कदाचित् उस का सम्भव है तब भी मरीचि और जल दोनों में सत्त्व या द्रव्यत्व के अलावा और कोई सामान्य धर्म 30 होना असंभव है। सत्त्व-द्रव्यत्व भी सिर्फ मरीचि और जल का ही साधारण धर्म नहीं कहा जा सकता क्योंकि अग्नि-वायु आदि में भी वे दोनों धर्म मौजूद हैं। तरंगाकारता भी मरीचि-जल का साधारण धर्म Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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