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________________ 5 अथ 'उदकम्' इति ज्ञानं विशेषग्राहि तर्हि भिन्नावभासं 'इदं ' 'उदकम् ' इति ज्ञानद्वयं प्रसक्तम् प्रतिभासभेदस्यान्यत्रापि भेदनिबन्धनत्वात् तस्य चात्रापि भावात् । ज्ञानद्वये च ' इदम्' इति सामान्यावभासि सत्यार्थविषयं संनिकर्षप्रभवम्, 'उदकम्' इति त्वविद्यमानविशेषावभासि न तत् संनिकर्षप्रभवम् । यदसत्यार्थं न तद् (अ)व्यभिचारिपदोपादानव्यवच्छेद्यम् संनिकर्षपदेनैवाऽपोदितत्वात् । यच्च संनिकर्षजं सामान्यज्ञानं तद् व्यभिचारि न भवतीति नाऽव्यभिचारिपदव्यवच्छेद्यम् । अथ 'इदमुदकं' इत्युल्लेखद्वययुक्तमेकं ज्ञानं - 10 यानी सामान्यरूप नहीं हो सकता, क्योंकि न्यायदर्शनानुसार उस में भी ' एक हो और अनेकसमवेत हो एवं संकरादिदोषमुक्त हो' ऐसी सामान्य की व्याख्या उस में घट नहीं सकती क्योंकि यहाँ जलत्वादि साथ सांकर्य है। कदाचित् किसी तरह उसे 'सामान्य' कह दिया जाय तो भी वह मरीचि एवं जल से भिन्न वायु में भी विद्यमान होने से मरीचि और जल मात्र का 'सामान्य' नहीं बन सकता । [ विशेष पर्यवसायि भ्रम की समीक्षा ] तथा, 'विशेष में पर्यवसित होने वाला' इस का मतलब यदि ऐसा हो कि वह ज्ञान 'विशेष का ग्राहक' है, तब तो विरुद्धधर्माध्यास के कारण वह ज्ञान सामान्य का ग्राहक नहीं हो सकता । 'यह' - इस आंशिक ज्ञान में किसी को भी विशेषार्थविषयता का अनुभव नहीं होता । यदि विशेषविषयता का अनुभव होगा तो सामान्य और विशेष दोनों का स्वरूप परस्पविरुद्ध यानी विभिन्न होने से, विशेष विषयता होने पर उस ज्ञान में सामान्यग्राहिता कैसे प्राप्त होगी ? [ भ्रमस्थल में विशेषग्राहिता के जरिये ज्ञानद्वय प्रसक्ति ] यदि 'उदक' ऐसे ज्ञान को विशेषग्राहि माना जाय तो भिन्न भिन्न सामान्य और विशेष ऐसे भिन्न भिन्न अर्थावभासक दो ज्ञान वहाँ प्रसक्त होंगे एक 'इदम्' सामान्य उल्लेखवाला, दूसरा 'जलं' ऐसे विशेष उल्लेखवाला । अन्यस्थलों में भी भेद का प्रयोजक प्रतिभासभेद ही होता है, यहाँ भी वैसा प्रतिभासभेद अक्षुण्ण है । फलतः यहाँ मरीचि जलज्ञान स्थल में जो दो ज्ञान सिद्ध हुए उन में एक 'इदम् ' (यह ) 25 ऐसा द्रव्यसामान्य का ज्ञान तो सामान्यावभासक एवं सत्यार्थविषयक अत एव संनिकर्षजन्य है, जब कि दूसरा ‘जलम्' ऐसा ज्ञान ( वहाँ जल के न होने से ) अविद्यमान विशेष का अवभासक है जो कि संनिकर्षजन्य नहीं है । दूसरा ज्ञान असत्यार्थावभासि है, असत्यार्थ के साथ इन्द्रियसंनिकर्ष संभव न होने से, 'इन्द्रियार्थसंनिकर्षजन्य' इस प्रत्यक्षलक्षणान्तर्गत पद से उस का व्यवच्छेद हो गया। फिर उस के व्यवच्छेद के लिये 'अव्यभिचारि' पद निरर्थक है । जो इन्द्रियसंनिकर्षजन्य सामान्यज्ञान है वह 30 तो व्यभिचारि नहीं है, अत एव उस के व्यवच्छेद के लिये भी 'अव्यभिचारि' पद निरर्थक ही है [ सामान्य - विशेषोभयग्राहि एक ज्ञान में विरोधप्रसक्ति ] 1 यदि 'यह जल है' ऐसे सामान्य- विशेष उभयोल्लेखि इस ज्ञान को आप एकरूप ही मानेंगे तो 15 ३१६ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - २ सामान्यं पराभ्युपगमेन न सम्भवत्येव । सम्भवेऽपि न तस्य तदुभयनियतत्वम्, अन्यत्रापि सद्भावोपपत्तेः । 'विशेषपर्यवसानम्' इत्येतदपि यदि विशेषग्राहकं तदा सामान्यग्राहकत्वानुपपत्तिः । न हि 'इदम्इत्येतस्य ज्ञानस्य विशेषग्राहिताऽनुभूयते, तत्त्वे वा सामान्य - विशेषयोर्भिन्नस्वरूपत्वात् कथं सामान्यग्राहिता ऽस्य ? 20 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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