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________________ ३१४ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ किञ्च, केशोन्दुकज्ञाने किमालम्बनम् किं वा प्रतिभाति ? इति वक्तव्यम् । अथ केशोन्दुकादिकमेवालम्बनम् प्रतिभाति च तदेव तत्र, तर्हि मरीच्युदकज्ञानेऽपि तदेवालम्बनम् तदेव प्रतिभातीति किं न भवेत् ? न च तज्ज्ञानस्य प्रतीयमानान्यालम्बनेन मिथ्यात्वम् अपि तु प्रतिभासमानस्याऽसत्यत्वेन, अन्यथा केशोन्दुकज्ञानस्य मिथ्यात्वं न भवेत्। न च मरीचिदेशं प्रति प्रवृत्तेर्मरीच्यालम्बनत्वम् तद्देशस्यैवमालम्बनत्वप्रसक्तेः। न च 5 प्रतिभासमानान्यार्थसंनिकर्षजत्वं तज्ज्ञानस्य, सत्योदकज्ञाने अस्याऽदृष्टेः । न चा (वा) प्रतीयमानसंनिकर्षजत्वस्य तस्य तज्जत्वमभ्युपगन्तुं युक्तम्, अन्यथानुमेयदहनज्ञानस्यापीन्द्रियार्थसंनिकर्षजत्वं स्यात् । अथ मन एव हाँ, तो जलाकार प्रतीत होने पर मरीचि भी प्रतीत होते हैं ऐसा कैसे कह सकते हैं ? यानी मरीचि को उस ज्ञान का आलम्बन कैसे कह सकते हैं ? यदि वैसा कहने का साहस करेंगे तो घट-पटादि को भी आलम्बन मानने का अनिष्ट प्रसंग होगा। [ केशोन्दुकज्ञान एवं मरीचि-उदकज्ञान की तुलना ] यह भी प्रश्न खडा है - बोलिये, केशोन्दुकज्ञान में आलम्बन क्या है और क्या प्रतीत होता है ? (खिडकी के बाहरखुले गगन में नजर डालने पर सफेद केशों के गुच्छ जैसा कुछ (असत्) प्रतीत होता है जिसे 'केशोन्दुक' कहा गया है, यहाँ ‘एक के बदले दूसरा प्रतीत होता है' ऐसा कुछ नहीं होता इसी लिये यह प्रश्न खडा किया है)। यदि ऐसा जवाब दे कि - 'यहाँ केशोन्दुक (असद् वस्तु) ही आलम्बन 15 है और वही तो प्रतीत होता है' - तो मरीचिजलज्ञानस्थल में भी ऐसा क्यों नहीं कि जल ही आलम्बन, और वही प्रतीत होता है ? यदि कहें कि – 'वहाँ प्रतीयमानपदार्थ जल है किन्तु उस से भिन्न मरीचि ही वहाँ आलम्बनीभूत है इस लिये वह ज्ञान मिथ्या होता है' - तो यह ठीक नहीं है, प्रतीयमान से भिन्न आलम्बन होने के कारण वह ज्ञान मिथ्या नहीं होता किन्तु प्रतीयमान जल वहाँ असत्य (अवास्तव) होने के कारण वह ज्ञान मिथ्या होता है। ऐसा नहीं मानेंगे तो जो केशोन्दुक है वह प्रतिभासमान से मालम्बनरूप न होने से उस के ज्ञान को मिथ्या कैसे कहा जा सकेगा? प्रतीयमान केशोन्दुक अवास्तव होने के जरिये ही उस के ज्ञान को 'मिथ्या' माना जाता है। यह भी प्रश्न है कि मरीचिजलानस्थल में आप मरीचि को 'आलम्बन' किस आधार से मानते हैं ? यदि जहाँ मरीचि दिखते हैं उस देश के प्रति जलार्थी कदम उठाता है इस लिये उस ज्ञान का आलम्बन मरीचि माना जाय, तब तो उस देश को देखने से जलार्थी उस देश के प्रति कदम 25 उठाता है, इस लिये उस देश को ही आलम्बन क्यों न मान लिया जाय ? [ मरीचि जलज्ञान की मरीचि संनिकर्ष से उत्पत्ति असंभव ] मरीचिजलज्ञान को प्रतिभासमानजलभिन्न मरीचि के साथ संनिकर्ष के द्वारा उत्पन्न होने का कहना भी अयुक्त है क्योंकि सत्यजलस्थल में जल के साथ संनिकर्ष के द्वारा ही जलज्ञान उत्पन्न होता है ऐसा ही देखा गया है, जलभिन्न अर्थ के साथ संनिकर्ष के द्वारा जलज्ञान की वहाँ (सत्यजलस्थले) 30 उत्पत्ति नहीं दीखती। फिर जलभिन्न मरीचि के साथ संनिकर्ष के द्वारा जलज्ञान की उत्पत्ति कैसे मान ली जाय ? यदि मरीचिजलप्रत्यक्ष को प्रतीयमानजलभिन्न मरीचि-इन्द्रियसंनिकर्षजन्य होना मान लिया जाय तो अनुमेयअग्निज्ञान भी अग्निभिन्नआत्मा धूमादि के साथ मनःसंनिकर्ष से जन्य होने पर Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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