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________________ खण्ड-४, गाथा-१ ३१३ तस्य तदन्वयव्यतिरेकानुविधानात् । तद्देशं प्रति प्रवृत्तेश्च मिथ्यात्वमपि तज्ज्ञानस्यान्यदालम्बनमन्यत् प्रतिभातीति कृत्वा । नन्वप्रतिभासमानं कथमालम्बनम् ? यदि ज्ञानजनकत्वात्, इन्द्रियादेरप्यालम्बनत्वप्रसक्तिः। आकारार्पकत्वतदधिकरणत्वादिकं त्वालम्बनत्वं न परस्याभिमतम् । तस्मात् तदवभासित्वमेवालम्बनत्वम् । न च मरीच्युदकज्ञाने मरीचयः प्रतिभान्ति। अथोदकाकारतया ता एव तत्र प्रतिभान्ति । ननु ताभ्य उदकाकारता यद्यव्यतिरिक्ता परमार्थसती च तदा तत्प्रतिपत्तेर्न व्यभिचारित्वम्। अथाऽपरमार्थसती तदा तासामप्यपरमार्थसत्त्वप्रसक्तिः। 5 किञ्च अपारमार्थिकोदकतादात्म्ये मरीचीनां तदुदकज्ञानवत् मरीचिज्ञानमपि वितथं भवेत् । न च उदकाकार एकस्मिन् प्रतीयमाने मरीचयः प्रतीयन्त इति वक्तुं शक्यमतिप्रसङ्गात् । अथ 'व्यतिरिक्ताः ताभ्य उददकाकारता तर्हि तत्प्रतिपत्तौ कथं मरीचय प्रतिभान्ति अन्यप्रतिभासेऽप्यन्यप्रतिभासाभ्युपगमे अतिप्रसङ्गात्।। क्या रही ?) जल वहाँ विद्यमान न होने से उस के साथ इन्द्रिय का संनिकर्ष भी नहीं होता। यदि वहाँ जल के साथ इन्द्रियसम्बन्ध बना होगा तब तो जलविषयक ज्ञान व्यभिचारि नहीं हो सकता, 10 जैसे कि विद्यमान घट-पटादि का ज्ञान व्यभिचारि नहीं होता। यदि कहा जाय – 'वहाँ प्रतिभासमान जल के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध न होने पर भी मरीचियों के साथ इन्द्रिय का सम्बन्ध होने के कारण वह मरीचिजलज्ञान भी इन्द्रियसंनिकर्षजन्य ही है, अजन्य नहीं है। इसी लिये तो जल के रूप में मरीचियाँ उस ज्ञान का आलम्बन बनते हैं, क्योंकि उस ज्ञान के साथ मरीचियों का ही अन्वय एवं व्यतिरेक का अनुसरण उपलब्ध है। जब दृष्टा जलार्थी उस देश में जल उपलब्धि के लिये वहाँ 15 पहुँचता है तब उस की प्रवृत्ति को मिथ्या भी कह सकते हैं क्योंकि ज्ञान का आलम्बन कुछ ओर ही है (मरीचि हैं जिस के साथ इन्द्रिय संनिकर्ष है) किन्तु जो दीखता है वह (जल) कुछ ओर ही है।' – तो यहाँ यह बड़ी समस्या है, जो प्रतिभासमान नहीं है वह 'आलम्बन' कैसे कहा जाय ? यदि ज्ञान का जनक होने के जरिये उस को 'आलम्बन' मान लेंगे तो ज्ञानजनक इन्द्रियों को भी ज्ञान का 'आलम्बन' मानना पडेगा। आप को ऐसा तो मान्य नहीं है कि अपने आकार का मुद्रण 20 करने के जरिये अथवा अपना अधिकरण होने के जरीये उसे आलम्बन कहा जाय। तब आखिर यही मानना होगा कि ज्ञान यदवभासि होगा वही उस का आलम्बन। मरीचिजलज्ञान मरीचियों का अवभासि न होने से मरीचियों को वहाँ आलम्बन नहीं कह सकते। [मिथ्याजलज्ञान में मरीचि का प्रतिभास विकल्पग्रस्त ] यदि कहा जाय - मरीचियाँ ही वहाँ जलाकार रूप से प्रतीत होती हैं - तो यहाँ दो प्रश्न 5 ऊठेंगे - क्या वह जलाकारता मरीचियों से अभिन्न एवं पारमार्थिक सत् है ? यदि हाँ, तब तो सत्यजलाभिन्न मरीचियों का ग्रहण (ज्ञान) सत्य होने से व्यभिचारि कैसे होगा ? यदि वह जलाकारता अवास्तवी है तब तो उस से अभिन्न मरीचि भी अवास्तव ठहरेंगे। दूसरी बात यह कि अवास्तव जलाकार (यानी जल) के साथ मरीचियों का अभेद मानने पर मिथ्याजलज्ञान की तरह मरीचिज्ञान भी जूठा ठहरेगा। यह तो नहीं कहा जा सकता कि एक स्थान में जलाकार प्रतीत होने पर वहाँ 30 मरीचियाँ भी प्रतीत होते हैं। अगर ऐसा कहेंगे तब तो घट-पटादि भी प्रतीत होते हैं - ऐसा भी कहना प्रसक्त होगा। दूसरा प्रश्न यह ऊठेगा कि क्या वह जलाकारता मरीचियों से भिन्न हैं ? यदि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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