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खण्ड-४, गाथा-१
३११ किञ्च, यदि अव्यभिचारितादयो धर्मा अर्थान्तरभूता ज्ञानस्य विशेषणत्वेनोपेयन्ते तदैकविशेषणावच्छिन्नज्ञानप्रतिपत्तिकाले नापरविशेषणावच्छिन्नस्य तस्य प्रतिपत्तिरित्यशेषविशेषणानवच्छिन्नं तत् सामग्र्या व्यवच्छेदकं भवेत्, अपरविशेषणावच्छिन्नतत्प्रतिपत्तिकाले ज्ञानस्य ज्ञानान्तरविरोधितया तस्याऽसत्त्वात् । अथ निर्विकल्पके युगपदनेकविशेषणावच्छिन्नस्य तस्य प्रतिभासानायं दोषः, तर्हि 'व्यवसायात्मकम्' इति पदमध्यक्षलक्षणे नोपादेयम् अनिश्चयात्मकस्याप्यध्यक्षफलत्वेनाभ्युपगमात् । अथ विशेषजनितं व्यवसायात्मकम् 5 नन्वेवं सामान्यजनितं विशेषणज्ञानमध्यक्षफलं न भवेत्। यदि चानेकविशेषणावच्छिन्नैकज्ञानाधिगतिरेकं ज्ञानम् कथमेकानेकरूपं वस्तु नाऽभ्युपगतं भवेत् ? वृत्ति माना जाय। अन्यथा एकार्थसमवाय घटेगा नहीं। यदि एकार्थ समवाय मानेंगे तो अब अव्यभिचारित्व आदि धर्मसमूह को ज्ञान में नहीं किन्तु समवाय सम्बन्ध से आत्मा में मानने की आपत्ति होगी। सच बात तो यह है कि जब समवाय भी आकाशपुष्पवत असत है तो एकार्थसमवाय का तो सम्भव 10 ही कहाँ ? ज्ञान के साथ (विशेष्यविशेषणभाव का अथवा) अव्यभिचारित्व का और कोई सम्बन्ध भी मेल नहीं खाता, न तो नैयायिक अन्य किसी सम्बन्ध को मानता है।
[ धर्मस्वरूप अव्यभिचारितादि ज्ञान से भिन्न या अभिन्न ? ] दूसरी बात - यदि अव्यभिचरितत्व आदि धर्मों को ज्ञान से अर्थान्तरभूत होते हुए ज्ञान के विशेषण मानेंगे तो नतीजा यह होगा कि एक विशेषण (अनुभवत्वादि) से अवरुद्ध ज्ञान का जब 15 ग्रहण होगा तब अन्यविशेषण (अव्यभिचरितत्व) से अवरुद्ध ज्ञान का ग्रहण, विशेषणों के विरोध के कारण शक्य नहीं होगा, फलतः परस्पर विरोध के कारण, ज्ञानसामग्री से ऐसा विशेषण विनिर्मुक्त ही ज्ञान गृहीत होगा जो एक भी विशेषण से अवरुद्ध नहीं होगा। इस स्थिति में अशेष विशेषणविनिर्मुक्त
की ज्ञानान्तरजनक सामग्री का व्यवच्छेदक मानना पडेगा - यह अनिष्ट खडा होगा। उस का निमित्त यह है कि अन्य अन्य विशेषण से अवरुद्ध ज्ञान ग्रहण काल में विवक्षित विशेषण 20 (अव्यभिचरितत्व) अवरुद्ध ज्ञान का अस्तित्व ही नहीं हो सकता क्योंकि एक ज्ञान अपने अस्तित्व काल में अन्य ज्ञान का विरोधि होता है।
यदि कहा जाय - 'उपरोक्त दोष निरवकाश है क्योंकि पृथक पृथक विशेषण से अवरुद्ध सविकल्प ज्ञान का ग्रहण शक्य न होने पर भी एक साथ अनेकविशेषणों से अवरुद्ध (अव्यभिचारित्वादि धर्मों से विशिष्ट) एक ही ज्ञान का निर्विकल्पग्रहण शक्य हो सकेगा।' – तो वहाँ प्रत्यक्षलक्षण में 25 'व्यवसायात्मकम्' ऐसा विशेषण व्यर्थ हो जाने से उपादेय नहीं रहेगा, क्योंकि अब तो आपने अध्यक्ष प्रमाण के फलस्वरूप अनिश्चय (=अव्यवसाय) रूप निर्विकल्प का ही स्वीकार कर लिया। यदि कहा जाय कि - अध्यक्षविशेष जन्य प्रमाणफल तो व्यवसाय (= निश्यय) रूप ही होता है, उस के लिये अध्यक्षप्रमाण लक्षण में 'व्यवसायात्मकम्' पद उपादेय रहेगा। तो ऐसा दूसरा अनिष्ट यह होगा कि अध्यक्षसामान्यजन्य विशेषणज्ञान को अध्यक्षफल स्वरूप (यानी अध्यक्षप्रमारूप) नहीं मान सकेंगे। 30
यह भी समस्या होगी कि एक ही ज्ञान को अनेक विशेषणों से अवरुद्ध एक ज्ञान के रूप में गृहीत होने का स्वीकार करेंगे तो उस ज्ञान वस्तु में (ज्ञानत्वरूप से एकत्व और विशेषणों के जरिये अनेकत्व इस प्रकार) एकानेकरूपता (जैन मत प्रवेश) के स्वीकार की आपत्ति क्यों नहीं होगी ?
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