SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 329
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१० सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ एव, अन्यथा ज्ञाने ‘अव्यभिचारि' इत्यादिव्यपदेशानुपपत्तिर्भवेत्। तर्हि अव्यभिचारितादीनामपि धर्माणां सत्त्व-प्रमेयत्व-ज्ञेयत्वाद्यनेकधर्माधिकरणतया धर्मिरूपतैव प्रसक्तेति कस्यचिद्धर्मस्यापरधर्मानधिकरणस्याभावात् धर्माभावतो धर्मिणोऽप्यभावप्रसक्तिः। नापि विशेषण-विशेष्यभावलक्षणोऽसौ, तस्याप्यपरसम्बन्धकल्पनया सम्बद्धत्वेऽनवस्थाप्रसक्तेः, असम्बद्धत्वे आत्मन्येवाऽव्यभिचारितादिधर्मकलापस्य प्रसक्तेः । न च समवायाऽभावे एकार्थसमवायः सम्भवी, न चान्यः सम्बन्धोऽत्र परैरभ्युपगम्यते। धर्मों का अधिकरण नहीं हो सकता। यदि इस नियम के विरुद्ध ज्ञान को अव्यभिचारितादि धर्मों का अधिकरण मान लेंगे तो ज्ञान में धर्मिता की प्रसक्ति होने से उस की धर्मरूपता का लोप होगा, क्योंकि एक वस्तु में धर्मिता और धर्मता परस्पर विरुद्ध है। अतः ज्ञान आत्मा का धर्म नहीं रहेगा। [ धर्म-धर्मिभाव समीक्षा ] 10 यदि कहा जाय कि - "नियम ऐसा है कि ज्ञानादि धर्मों में समान धर्म (यानी ज्ञानादि) की अधिकरणता नहीं होती जैसे ज्ञान में ज्ञान, जाति में जाति, गुण में गुण इत्यादि । किन्तु, धर्म में विजातीय धर्मों की अधिकरणता तो मान्य ही है, जैसे गुणों में जाति, द्रव्यों में क्रिया... इत्यादि । यदि ऐसा नहीं मानेंगे - मतलब कि ज्ञान रूप धर्म में विजातीय अव्यभिचरितत्वादि धर्मों की अधिकरणता को नहीं मानेंगे - तो अव्यभिचरितत्वादि धर्मों से शून्य ज्ञान में 'अव्यभिचारि' इत्यादि शब्दों का 15 उचित व्यवहार लुप्त हो जायेगा।" - अच्छा, यदि विजातीय धर्मों की अधिकरणता मान्य है तब तो अव्यभिचारितादि धर्मों में भी विजातीय सत्त्व, प्रमेयत्व, ज्ञेयत्वादि अनगनित धर्मों की अधिकरणता प्रविष्ट होने से, अव्यभिचारितादि धर्मों में भी धर्मिरूपता का प्रसंजन होगा। यानी धर्मता-धर्मिता विरुद्ध धर्म प्रवेश प्राप्त होगा। (निष्कर्ष, विरुद्धधर्मसमावेश दोष को टालने के लिये यही मानना पडेगा कि कोई भी धर्म अन्य धर्मों का अधिकरण नहीं हो सकता, चाहे वह सजातीय हो या विजातीय।) तथापि 20 धर्म को धर्मों का अधिकरण मानने पर, प्रमेयत्वादि धर्म का अधिकरण न हो ऐसा कोई शुद्ध धर्म (अनौपचारिक धर्म) अस्तित्व में न रहने से सारा जगत् धर्मशून्य बन जायेगा, फलतः धर्म के अभाव में धर्मी भी कोई न बचेगा तो उस के भी अभाव की आपत्ति आयेगी, क्योंकि धर्म नहीं तो धर्मी (धर्माधिकरण) भी कैसे ? ___ ज्ञान से अव्यभिचारित्व को भिन्न मानने पर, एवं समवाय को उन दोनों के सम्बन्धरूप में स्वीकार 25 करने पर भी उपरोक्त आपत्ति अटल रहेगी। अत एव ज्ञान और अव्यभिचारित्व का विशेष्य-विशेषणभावरूप सम्बन्ध भी संगत नहीं हो सकेगा, क्योंकि यदि इस विशेष्य-विशेषणभावरूप सम्बन्ध का ज्ञान के साथ कोई अन्य सम्बन्ध भी मानना पडेगा और तब उस के साथ भी अन्य एक सम्बन्ध... इस तरह अनवस्था दोष प्रसक्त होगा। यदि विशेष्य-विशेषणभाव सम्बन्ध को ज्ञान के साथ असम्बद्ध ही मानेंगे, तब तो 'ज्ञान का अव्यभिचारित्व के साथ विशेष्य-विशेषणभाव सम्बन्ध है' ऐसा व्यवहार लुप्त 30 हो जायेगा, क्योंकि विशेष्य-विशेषणभाव सम्बन्ध को ज्ञान के साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं है। ऐसा भी नहीं कह सकते कि “ज्ञान के साथ अव्यभिचारित्व का ‘एकार्थसमवाय' सम्बन्ध है।" क्योंकि वह तभी हो सकता है कि जब ज्ञान की तरह अव्यभिचारिता को भी आत्मा में समवाय सम्बन्ध से Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy