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________________ खण्ड-४, गाथा - १ ३०९ इति तदव्यभिचारितावगमः; नन्वत्राप्यव्यभिचारित्वं किं ज्ञानधर्मः उत तत्स्वरूपम् ? यदि तद्धर्मः तदा न नित्यः सामान्यदूषणेनापोदितत्वात् । अनित्योऽपि यदि ज्ञानात् प्राक् उत्पन्नः तदा न तद्धर्मः धर्मिणमन्तरेण तस्य तद्धर्मत्वाऽयोगात् । सहोत्पादेऽपि तादात्म्य-तदुत्पत्ति-समवायादिसम्बन्धाभावे 'तस्य धर्मः' इति व्यपदेशानुपपत्तिः । पश्चादुत्पादे पूर्वं व्यभिचारि तद् ज्ञानं स्यात् । किञ्च, अव्यभिचारितादिको धर्मो ज्ञानाद् व्यतिरिक्तो अव्यतिरिक्तो वा ? यदि व्यतिरिक्तः तदा 5 तस्य ज्ञानेन सह सम्बन्धो वाच्यः । स न समवायलक्षणः तस्याऽसिद्धेः । सिद्धौ अपि ज्ञानस्य धर्मतया अव्यभिचारितादिधर्माधिकरणताऽयोगात् धर्माणां धर्माधिकरणताऽनभ्युपगमात् । अभ्युपगमे वा तस्यापि धर्मिरूपताप्रसक्तिः । अथ समानधर्माधिकरणता धर्माणां नाभ्युपगम्यते, विजातीयधर्माधिकरणता त्विष्यत ही वह ज्ञान को प्रभावित कर के विषय बन जाय । लेकिन पाँचो ही प्रकार से सद्वस्तु ही ज्ञान का विषय बन सकती है, असद् वस्तु में पाँच में से एक भी प्रकार सम्भव न होने से पूर्वोदित 10 ज्ञान वर्त्तमान ज्ञान का विषय नहीं बन सकता क्योंकि वह असत् है । [ मानससंनिकर्ष से अव्यभिचारिता का ज्ञान कैसे ? ] यदि कहा जाय 'अव्यभिचारिता से विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न होने पर तत्काल ही (उत्तरक्षण में नहीं) आत्मा और मन के संनिकर्ष से गृहीत हो जाता है । इस प्रकार मानस संनिकर्ष समानकाल में ही अव्यभिचारिता को जान लेता है ।' तो यहाँ प्रश्न खडा होगा कि वह अव्यभिचारिता क्या 15 A ज्ञान का धर्म है या ज्ञान का अपना स्वरूप ही है ? यदि वह धर्म है तो नित्य (जाति) रूप तो नहीं ही होगा, क्योंकि हमने जो जाति (= सामान्य) वाद में दोषारोपण दिखाया है वह सब यहाँ भी प्रसक्त होगा । यदि वह धर्म अनित्य है तो तीन प्रश्न खडे होंगे कि वह ज्ञान के पूर्व, ज्ञान के साथ, या ज्ञान के बाद उत्पन्न होगा ? ज्ञान के पहले उत्पन्न होने उत्पन्न न होने से ) ज्ञान का धर्म कहा नहीं जा सकता क्योंकि धर्मी के अभाव में उस का कोई 20 धर्म नहीं घट सकता। यदि वह ज्ञान के साथ ( लेकिन स्वतन्त्र अलग) उत्पन्न होगा तो, ज्ञान के साथ उस का कोई सम्बन्ध घटने पर ही वह ज्ञान का धर्म कहा जा सकेगा। तादात्म्य, तदुत्पत्ति या समवाय जैसे किसी सम्बन्ध का ज्ञान के साथ मेल न बैठने पर वह 'ज्ञान का धर्म' ऐसा बीरुद प्राप्त नहीं कर सकता । यदि अव्यभिचरितत्व धर्म ज्ञानोत्पत्ति के क्षण में नहीं किन्तु उत्तरक्षण में उत्पन्न होना मानेंगे तो पूर्व क्षण में वह ज्ञान अव्यभिचरित नहीं किन्तु व्यभिचारि ठहरेगा । कारण, पूर्व क्षण 25 में वह अव्यभिचारित्व धर्म से शून्य I वाला पदार्थ ( उस समय - [ अव्यभिचारितादि धर्म ज्ञान से भिन्न या अभिन्न ? ] अव्यभिचारिता आदि को ज्ञान का धर्म मानने पर, वह ज्ञान से पृथक् (भिन्न ) है या अभिन्न, ऐसे कई प्रश्न खडे होंगे। यदि वह ज्ञान से भिन्न कहेंगे तो साथ में, ज्ञान के साथ उस धर्म के सम्बन्ध का भी नाम देना पडेगा । समवाय का तो नाम ही नहीं ले सकते क्योंकि वह सिद्ध नहीं 30 है । सिद्ध होने पर भी समवाय सम्बन्ध के द्वारा ज्ञान में अव्यभिचारिता आदि धर्मों की अधिकरणता घट नहीं सकती क्योंकि ज्ञान खुद ही एक (आत्मा का ) धर्म है। यह नियम है कि एक धर्म दूसरे Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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