________________
३०८
सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ किञ्च, प्रवृत्तिसामर्थ्येनाऽव्यभिचारिता पूर्वोदितज्ञानस्य किं लिङ्गभूतेन ज्ञायते Bउताऽध्यक्षरूपेण ? यद्याद्यः पक्षः स न युक्तः, तेन सह सम्बन्धानवगतेः। अवगतौ वा न प्रवृत्तिसामर्थ्येन प्रयोजनम् । अथ द्वितीयः, सोऽपि न युक्तः, ध्वस्तेन पूर्वज्ञानेन सह इन्द्रियस्य संनिक भावात् तद्विषयज्ञानस्याध्यक्षफलतानुपपत्तेः।
केशोन्दुकादिज्ञानवत् तस्य निरालम्बनत्वाच्च कथमव्यभिचारिताव्यवस्थापकत्वम् ? न चाऽविद्यमानस्य 5 कथंचिद्विषयभावः सम्भवति जनकत्वाऽऽकारार्पकत्व-महत्त्वादिधर्मोपेतत्व-सहोत्पाद-सत्त्वमात्रादीनां विषयत्वहेतुत्वेन
परिकल्पितानामसति सर्वेषामभावात। अथात्मान्तःकरणसम्बन्धेनाऽव्यभिचारिताविशिष्टज्ञानमूत्पन्नं गृह्यत पक्ष की चर्चा का एक ही निष्कर्ष है - प्रतिभासित अर्थ की प्राप्ति के द्वारा ज्ञान में अव्यभिचारित्व का किसी भी प्रकार से सम्भव नहीं है। (इस प्रकार मूल विकल्प A का निरसन पूर्ण हुआ। अप्रतिभात विषय की प्राप्ति से ज्ञान की अव्यभिचारितारूप दूसरा मूल विकल्प B तो अत्यन्त असम्भवग्रस्त है 10 यह स्वयं ही समझ लेना। कारण, जब प्रतिभात विषय की प्राप्ति से भी ज्ञान का अव्यभिचारित्व संगत नहीं होता तो अप्रतिभातविषय की प्राप्ति से तो कैसे संगत होगा ?)
[ प्रवृत्तिसामर्थ्य के द्वारा अव्यभिचारिता का बोध कैसे ? ] एक और बात है - पहले कह चुके हैं कि ज्ञान का अव्यभिचारित्व, प्रवृत्तिसामर्थ्य का बोध न होने पर अवगत नहीं हो सकता। (पृ.३०४-पं०६) अब यहाँ भी जाँच करो, पूर्वकालीन ज्ञान 15 का प्रवृत्तिसामर्थ्य लिङ्ग बन कर लिङ्गीअव्यभिचारित्व का बोध करायेगा ? या Bअध्यक्षरूप से ज्ञात
प्रवृत्तिसामर्थ्य से अव्यभिचारित्व का बोध होगा ? ___Aप्रथम पक्ष इस लिये अयुक्त है कि ज्ञान के अव्यभिचारित्व के साथ प्रवृत्तिसामर्थ्य का व्याप्तिरूप सम्बन्ध किसी प्रत्यक्षादि से उपलब्ध नहीं है। यदि वह सम्बन्ध उपलब्ध है तो जिस प्रमाण से
अव्यभिचारित्व के साथ सम्बन्ध का ग्रह होगा उसी प्रमाण से अव्यभिचारित्व की भी उपलब्धि हो 20 जाने से, प्रवृत्तिसामर्थ्यात्मक लिंग का अभी कोई प्रयोजन ही नहीं रहा।
___Bद्वितीय पक्ष इसलिये अनुचित है कि पूर्वज्ञान तो वर्तमान में विनष्ट हो जाने से उस के साथ इन्द्रिय का संनिकर्ष सम्भव न होने से पूर्वज्ञान के प्रवृत्तिसामर्थ्य का अध्यक्ष सम्भव ही नहीं है। अत एव पूर्वज्ञान विषयक (प्रवृत्तिसामर्थ्यग्राहक) ज्ञान में अध्यक्षप्रमाणजन्य फलत्व संगत नहीं होगा।
यह भी प्रश्न खडा है कि अतीत ज्ञान तो असत् होने से वर्तमान अध्यक्ष ज्ञान का वह विषय 25 ही नहीं हो सकता, अत एव वर्तमान अध्यक्ष निर्विषयक है जैसे केशोन्दुकादि असद्भासि ज्ञान, ऐसा निर्विषयक अध्यक्ष पूर्वज्ञान की अव्यभिचारिता की सत्यता कैसे भासित कर सकेगा ? ।
[ सत्य वस्तु पाँच प्रकार से विषय बनेगी ] ___ जो वस्तु ही असत् है वह किसी भी प्रकार से ज्ञानादि के विषयभाव को प्राप्त नहीं हो सकती। कोई भी वस्तु निम्नोक्त (पाँच) प्रकार से ही ज्ञानादि के विषय बन सकती है १ वस्तु अपने आकार 30 को ज्ञान में मुद्रित करे (स्व आकार अर्पकत्व) २ अथवा वस्तु उस ज्ञान को उत्पन्न करे (तज्जनकत्वरूप
से) ३ अथवा वस्तु महत्त्वादि धर्म से युक्त होने के कारण अध्यक्षयोग्यता प्राप्त करे, ४ अथवा वस्तु अपनी उत्पत्ति के साथ साथ (स्वविषयक) ज्ञान को भी उत्पन्न करे, ५ सिर्फ अपनी सत्ता मात्र से
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org