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________________ खण्ड-४, गाथा-१ ३०७ सम्भवति ? प्रतिभासनेऽपि स्वरूपेण प्रतिभासनात् कथं भ्रान्तिनिमित्तता ? न च सामान्यस्य प्रतिपत्ती सामान्यसाध्यार्थक्रियार्थितया तदर्थिनां प्रवृत्तिः, ज्ञानाभिधानलक्षणायास्तदर्थक्रियायास्तदैव निष्पत्तेः । व्यापकत्वाच्च सामान्यस्य न प्रतिनियतदेशकालप्रवृत्तिविषयतेति प्रवृत्त्यभावात् न तत्सामर्थ्यम्, तदभावाद् न तदवभासिनो ज्ञानस्याऽव्यभिचारितावगतिः। अथ प्रतिभाततद्वदर्थप्राप्त्या तदव्यभिचारित्वमिति पक्षः । सोऽप्यसङ्गतः अवयवि-सामान्ययोरभावे 5 तद्वत्पक्षस्य दुरापास्तत्वात्। अथ प्रतिभातावयवप्राप्त्या तस्याऽव्यभिचारिता। न, अवयवानामपि व्यणुकं यावदवयवित्वात् परमाणूनां चाऽग्दिर्शनेऽप्रतिभासनाद् न कथंचित्प्रतिभातार्थप्राप्त्या ज्ञानस्याऽव्यभिचारितासम्भवः। तब भी वह तो व्यापक और एक है अतः सभी व्यक्ति के साथ साधारण है, तो फिर किसी एक ही नियत व्यक्ति में प्रवृत्ति का वह निमित्त कैसे माना जाय ? जब वह भी नित्य है तब (पूर्वोक्त 10 युक्ति अनुसार) वह ज्ञानजनक एवं ज्ञानविषय भी नहीं बन सकता। फिर स्वग्राहकरूप से अभिमत ज्ञान में न भासनेवाले समवाय को भ्रान्ति का निमित्त कैसे माना जा सकता है ? भासेगा तो भी वह अपने स्वरूप से ही भासित होगा न कि भ्रान्तिजनकरूप से, तो उसे भ्रान्ति का निमित्त क्यों मानेंगे ? यदि कहें – 'जलसामान्य का बोध होने पर जलपानादि अर्थक्रिया भले सिद्ध न हो, सामान्यमात्रसाध्य अर्थक्रिया तो होगी न ? उस के लिये उन के अर्थीयों की प्रवृत्ति भी हो सकेगी।' - तो यह भी गलत 15 है। कारण, सामान्यमात्र की साध्य दो ही अर्थक्रियाएँ हैं, स्वविषयक बोध एवं स्वप्रतिपादक नामप्रयोग । ये दो अर्थक्रिया तो उस के अर्थी की प्रवृत्ति के पहले ही सिद्ध हो जाती है। देखिये, अर्थी की प्रवृत्ति के पहले ही उस का बोध तो हो ही जाता है, और उस के बाद दूसरे को दिखाने के लिये उस का नामाभिधान भी हो ही जाता है। अब तीसरी कौन सी अर्थक्रिया शेष रही जिस में अर्थक्रियार्थी की प्रवृत्ति का सम्भव रहेगा ? यह भी जान लो कि सामान्य भी व्यापक होने से नियतरूप से एक प्रदेश 20 में और एक ही काल में वह प्रवृत्ति का विषय (यानी लक्ष्य) कैसे हो सकता है ? मतलब कि वहाँ अर्थी की नियत प्रवृत्ति शक्य न होने से, मानना पडेगा कि सामान्य अर्थक्रियाकारकसामर्थ्य से शून्य है। इस प्रकार, शक्तिहीन होने से सामान्यावभासि ज्ञान में अव्यभिचारिता का निर्णय असिद्ध है। पहले जो तीन विकल्प (a-b-c) प्रतिभात विषय के बारे में कहे गये हैं - उन में से दो विकल्प का निरसन करने पर जो तीसरा विकल्प उभयपक्षवाला उल्लिखित किया गया था, अब उस 25 के संदर्भ में पूर्वपक्षी यदि कहेगा - 'प्रतिभात तो सामान्य ही है लेकिन प्राप्ति प्रतिभातसामान्य विशिष्ट व्यक्ति की होती है, यही ज्ञान की अव्यभिचारिता कही जायेगी।' - यह भी गलत है, क्योंकि न तो सामान्य सिद्ध है. न तो तद्वान अवयवी सिद्ध है। इस लिये तद्वान की प्राप्ति-रूप अव्यभिचारित्ववाला पक्ष तो डर का मारा दूर ही भाग जायेगा। यदि कहा जाय (a-b-c विकल्प उपरांत) - 'अवयव तो सिद्ध है, प्रतिभासित अवयवों की प्राप्ति से हम ज्ञान की अव्यभिचारिता जाहीर करेंगे।' - तो 30 यह भी असंगत है। कारण... व्यणुकपर्यन्त अवयव भी आखिर तो अवयवी ही है जो कि असिद्ध है। शेष बचे परमाणु, वे तो छद्मस्थ (सतहदी) के ज्ञान से भासित ही नहीं हो सकते। तीनों Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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