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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ दवस्थपदार्थोत्पादितत्वा(?दितं वा) तदव्यभिचारि भवेत् ।
अथ प्रतिभातोदकसामान्यप्राप्त्या तदव्यभिचारीति पक्षः। सोऽप्ययुक्तः, एकान्ततो व्यक्तिभ्यो भिन्नस्याऽभिन्नस्य वा सामान्यस्याऽसत्त्वेन प्रतिभासप्राप्त्यालम्बनत्वाऽयोगात्। सत्त्वेऽपि तस्य नित्यतया स्वप्रतिभासज्ञानजनकत्वाऽयोगादजनकस्य च परेण ज्ञानविषयत्वाऽनभ्युपगमात् । ज्ञानविषयत्वेऽपि तस्य पानावगाहनाद्यर्थक्रियाऽनिर्वर्तकत्वान्नार्थक्रियार्थिनां तज्ज्ञानात् जलाधुपादानार्था प्रवृत्तिर्भवेत्। न च समवायात् सामान्यावगमेऽपि व्यक्तावर्थक्रियार्थिनां प्रवृत्तिः अन्यप्रतिभासे अन्यत्र प्रवृत्त्ययोगात् । योगे वाऽतिप्रसङ्गात् । न च समवायस्यातिसूक्ष्मतया जाति-व्यक्त्योरेकलोलीभावेन जातिप्रतिपत्तावपि भ्रान्त्या व्यक्तौ प्रतिपत्तिः, तज्ज्ञानस्याऽतस्मिंस्तद्ग्रहणरूपतया भ्रान्तिरूपत्वादव्यभिचारित्वाऽयोगात्। न च समवायोऽपि जातेर्व्यक्ती
सम्भवति। सम्भवेऽपि तस्य व्यापितया सर्वत्रैकस्य प्रतिनियतव्यक्तिप्रवृत्तिनिमित्तत्वाऽनुपपत्तिः। न च 10 नित्यस्य तस्य ज्ञानजनकत्वमपि सम्भवतीति स्वग्राहिणि ज्ञाने अप्रतिभासमानस्य कथं भ्रान्तिहेतुतापि तस्य
पदार्थ के ज्ञान के बाद उस पदार्थ का नाश हो जाने के कारण, उस की प्राप्ति शक्य न होने से वह भी अव्यभिचारि नहीं हो सकेगा।
[ bप्रतिभासितजलसामान्यप्राप्ति का असम्भव ] ___अब यदि उदकावयवी पक्ष छोड कर 'उदकसामान्य का पक्ष लेकर कहा जाय – ‘अवभासितजलसामान्य 15 की प्राप्ति से ज्ञान की अव्यभिचारिता निश्चित की जाती है' - तो यह पक्ष भी गलत है। कारण,
व्यक्ति से एकान्त (सर्वथा) भिन्न अथवा सर्वथा अभिन्न सामान्य असिद्ध होने से न तो वह प्रतिभास का विषय हो सकता है न तो प्राप्ति का। कदाचित् सामान्य की सत्ता स्वीकृत करें तो भी वह नित्य होने से अपने प्रतिभासज्ञान का जनक न होने से वह ज्ञान का विषय भी नहीं हो सकता
क्योंकि आप की ही मान्यता है कि जो ज्ञान का जनक नहीं होता वह उस का विषय नहीं होता । 20 कदाचित् फिर भी उस को ज्ञान का विषय मान लिया जाय तो भी नित्य जलसामान्य के द्वारा जलपान
जलावगाहन आदि अर्थक्रिया सम्पन्न न हो सकने से जलपानादि चाहकों की वहाँ जलसामान्यज्ञान से (नित्य सामान्य में) जलपानादि के लिये प्रवृत्ति नहीं होगी। ऐसा भी शक्य नहीं है कि समवाय सम्बन्ध से नित्य सामान्य का बोध होने के बाद व्यक्ति रूप जल के प्रति जलपानादि चाहकों की प्रवृत्ति
हो जाय । कारण, अन्य (एक) वस्तु (घटादि) का प्रतिभास होने पर अन्य (पटादि) वस्तु के लिये 25 प्रवृत्ति होना युक्तिसंगत नहीं है। यदि वैसा शक्य होता तो किसी भी वस्तु के ज्ञान से किसी भी वस्तु के प्रति प्रवृत्ति हो जाने का अतिरेक प्रसक्त होगा।
यदि कहा जाय – 'जाति-व्यक्ति का सम्बन्ध समवाय अति सूक्ष्म (यानी नहींवत्) है। अतः जाति और व्यक्ति अत्यन्त मिले-घूले रहते हैं। इस लिये जाति का बोध होने पर भी भ्रान्ति से व्यक्ति के लिये प्रवृत्ति हो जायेगी।' - यह भी गलत है क्योंकि पुरोवर्ती जातिपदार्थ जो कि अव्यक्तिरूप है 30 उस में व्यक्तिरूप से व्यक्ति का ग्रहण होना, यह तो भ्रान्तिरूप है, भ्रान्तिज्ञान में 'अव्यभिचारिता' सम्भव ही नहीं है तब ज्ञान के लक्षण में अव्यभिचारिता का समर्थन कैसे हो पायेगा ?
[ जातिवाद में अनेक दोष ] दूसरी बात यह है, जाति का व्यक्ति में समवायसम्बन्ध भी अघटित है। कदाचित् सुघटित हो,
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