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खण्ड-४, गाथा - १
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B आहोस्विदप्रतिभातविषयप्राप्त्या ? यदि प्रतिभातविषयप्राप्त्या, तदोदकज्ञाने किमुदकावयवी प्रतिभातः प्राप्यते उत "तत्सामान्यम् ' आहोस्विदुभयमिति पक्षाः ।
तत्र यद्यवयवी प्रतिभातः प्राप्यते इति पक्षः, स न युक्तः अवयविनोऽसत्त्वेन प्रतिभासं प्रति विषयत्वाऽसम्भवात् । सत्त्वेऽपि न तस्य पराभ्युपगमेन प्रतिभातस्य प्राप्तिः झषादिविवर्त्तनाभिघातोपजातावयवक्रियादिक्रमेण ध्वंससंभवात् । अथाऽवस्थितव्यूहैरवयवैरारब्धस्य तस्य तज्जातीयतया प्रतिभातस्यैव 5 प्राप्तिः । नन्वेवमप्यन्यः प्रतिभातोऽन्यश्च प्राप्यते इति कथं तदवभासिनो ज्ञानस्याऽव्यभिचारिता ? न ह्यन्यस्य प्रतिभासनेऽन्यत्र प्राप्तावव्यभिचारिता, अन्यथा मरीचिकाजलप्रतिभासे दैवात् सत्यजलप्राप्तौ तदवभासिनः तस्याऽव्यभिचारिता भवेत्। न च तद्देशजलप्रापकस्याऽव्यभिचारितेति नायं दोषः । यतो देशस्यापि भास्करकरानुप्रवेशादिनाऽवयवक्रियाक्रमेण नाशात् तत्त्वानुपपत्तिः । न चैवमव्यभिचारवादिनश्चन्द्रार्कादिज्ञानं विनश्यविषय की प्राप्ति से ? ये दो विकल्प प्रश्न हैं । ( A ) यदि पहला विकल्प, विज्ञानावभासित विषय 10 की प्राप्तिवाला स्वीकारेंगे तो यहाँ भी तीन विकल्प प्रश्न ऊठेंगे, जलज्ञान में भासित होनेवाला जलस्कन्ध (यानी व्यक्तिविशेष) ही प्राप्त होगा ? या जलसामान्य प्राप्त होगा ? अथवा विशेष - सामान्य उभय प्राप्त होंगे ? प्रथम विकल्प संगत नहीं है, क्योंकि वहाँ यदि जलस्कन्ध भासित एवं प्राप्त होता है तो वह इसलिये सच्चा नहीं है चूँकि अवयवी ही असिद्ध है अतः वह किसी भी प्रतिभास का विषय ही नहीं बनता। कदाचित् अवयवी सिद्ध हो जाय तो भी सरोवर में जिस जलावयवी को देखा था 15 उस की प्राप्ति अशक्य है, क्योंकि दर्शन के बाद उस सरोवर में मगर - मत्स्यादि की हिलचाल से उन के पुच्छाभिघात से उत्पन्न अवयवकम्पनों से क्रिया-विभाग इत्यादि क्रम से पूर्वदृष्ट अवयवी के प्राप्तिकाल के पहले ही ध्वंस हो जायेगा, ध्वस्त अवयवी की प्राप्ति कैसे होगी ?
'जिस देश में जलावभास' हुआ था उसी देश 25
यदि कहा जाय कि 'पूर्वदृष्ट अवयवी के ध्वंस के बाद तुरन्त ही उसी विद्यमानव्यूह वाले अवयवों से जो समानजातीय नया अवयवी उत्पन्न होगा जो कि पूर्वजातीय के रूप में प्रतिभात ही 20 है उस की प्राप्ति हो सकती है ' तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि यहाँ पूर्वविज्ञानभासित विषय व्यक्ति अन्य है और प्राप्त तज्जातीय विषयव्यक्ति अन्य है, तब विषयावभासि पूर्वज्ञान को अव्यभिचारि कैसे माना जाय ? विषयभिन्नता के बावजूद भी यदि आप उसे अव्यभिचारि मानेंगे, तो मरुमरीचिका में जलप्रतिभास के बाद दैवयोग से यदि किसी को सत्य जल की प्राप्ति हो गयी तो मिथ्याजलावभासि ज्ञान भी अव्यभिचारि मानना पडेगा । यदि कहें कि में ( न कि वही ) जल का प्राप्तिकारक होने के कारण उस विज्ञान ( जलभ्रम) को अव्यभिचारि मानने में कोई पूर्वोक्त दोष सावकाश नहीं है क्योंकि देश (आधार) रूप विषय एक ही है।' तो यह भी गलत है क्योंकि सूर्यकिरणों के अनुप्रवेश से (जैसे आप काँच का नाश मानते है वैसे) उस देश के अवयवों में संजात क्रिया से विभागादि क्रम से उस देश का भी प्राप्तिकाल में नाश हो चुका है फिर एक ही आधार - देश की प्राप्ति कैसे सम्भव होगी ? विचारणीय तथ्य यह है कि यदि विषयप्राप्ति 30 को अव्यभिचारिता का मूल कहेंगे तो सूर्य-चन्द्र के ज्ञान के उत्तरकाल में कभी भी सूर्य-चन्द्र की प्राप्ति न होने से सूर्यज्ञान या चन्द्रज्ञान कैसे भी अव्यभिचारि नहीं बन सकेगा । एवं नाशप्रक्रियाधीन
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