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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ अथोभयजज्ञानविषयस्यापि तदतिक्रान्तत्वम् तर्हि अव्यपदेश्यपदोपादानमन्तरेणापि शाब्दे एव तस्याऽन्तर्भावो भविष्यतीति तद्व्यवच्छेदार्थमव्यपदेश्यपदोपादानमनर्थकम् । अथोभयजत्वादस्य प्रमाणान्तरत्वं स्याद् असति अव्यपदेश्यग्रहणे । न, अक्षप्राधान्ये प्रत्यक्षता शब्दप्राधान्ये तु शाब्दतेति कथं प्रमाणान्तरता ? न चोभयोरपि प्राधान्यम् सामग्र्यामेकस्यैव साधकतमत्वात् तेनैव च व्यपदेशप्राप्तेः।
यदपि 'व्यभिचारिज्ञाननिवृत्त्यर्थमव्यभिचारिपदमुपात्तम्' तदप्ययुक्तम्, तत्प्रतिपाद्यस्यार्थस्य परमतेनाऽसङ्गतेः। तथाहि- अदुष्टकारणप्रभवत्वं बाधारहितत्वं वा अव्यभिचारित्वं प्रवृत्तिसामर्थ्यावगमव्यतिरेकेण न ज्ञातुं शक्यमिति स्वतःप्रामाण्यनिराकरणप्रस्तावे प्रतिपादितमिति (प्र॰खंडे पृ० ३६ तः ६६) प्रवृत्तिसामर्थ्यमेवाऽव्यभिचारित्वम् । तच्च विषयप्राप्त्या विज्ञानस्याऽव्यभिचारित्वं ज्ञायमानं किं प्रतिभातविषयप्राप्त्याऽवगम्यते
होने से उस का अन्तर्भाव शाब्द में किया जाय तो इन्द्रियजन्यत्व के कारण प्रत्यक्ष में उस का अन्तर्भाव 10 क्यों न होगा ? शब्द की प्रधानता सोच कर उसे 'शाब्दबोध' रूप मानना ठीक नहीं है क्योंकि इन्द्रिय
एवं लिङ्ग का जहाँ योगदान न रहे वहाँ ही शब्द की प्रधानरूप से सक्रियता होती है, यहाँ तो इन्द्रिय का योगदान होने से शब्द की प्रधानता नहीं हो सकती। यदि इन्द्रियशब्दउभयजन्य ज्ञान के विषय को भी आप इन्द्रियातीत मानेंगे तो वहाँ इन्द्रियव्यापार के न होने से अव्यपदेश्य पद न होने
पर भी अपने आप ही उस का अन्तर्भाव प्रत्यक्ष में न हो कर शाब्दबोध में हो जाने से ‘अव्यपदेश्य' 15 पद की कुछ भी आवश्यकता नहीं रहती।
नैयायिक :- “उभयजन्यता के जरिये उस ज्ञान को स्वतन्त्र प्रमाण ही मानना पडेगा यदि 'अव्यपदेश्य' पद नहीं कहा जायेगा - 'अव्यपदेश्य' पद के रहने से स्पष्ट हो जायेगा कि यहाँ शब्दजन्यता (व्यपदेश्यता) के कारण उस का अन्तर्भाव शाब्द में है।"
जैन :- जब इन्द्रिय के प्राधान्य की विवक्षा होगी तब प्रत्यक्ष में एवं शब्द की प्रधानता की 20 विवक्षा करेंगे तब शाब्द में - इस प्रकार दोनों में अन्तर्भाव शक्य है तब प्रमाणान्तरता (स्वतन्त्र
प्रमाण) की कल्पना को अवकाश ही कहाँ है ? दोनों की प्रधानता भी नहीं हो सकती क्योंकि किसी भी प्रमाण की सामग्री में किसी एक ही कारण में (प्रमा का)साधकतमत्व हो सकता है अतः साधकतमत्वरूप प्राधान्य किसी एक में ही शक्य है। जिस का प्राधान्य होगा उसी प्रमाण का व्यवहार प्राप्त होगा।
[प्रत्यक्षलक्षणगत 'अव्यभिचारि' पद की समीक्षा ] 25 नैयायिकों ने व्यभिचारिज्ञान में प्रत्यक्षलक्षण की अतिव्याप्ति को टालने के लिये जो अव्यभिचारि
पद का प्रयोग किया है वह भी अयुक्त है। कारण, अव्यभिचारि पदार्थ ही न्यायमत में संगत नहीं होता। देखो अव्यभिचारित्व का अर्थ यदि निर्दोषकारणजन्यत्व अथवा बाधारहितत्व करेंगे तो उस का बोध, कार्योत्तरकाल में समर्थ (संवादी) प्रवृत्ति के जनकत्वरूप सामर्थ्य के अवबोध के विना शक्य
नहीं हो सकता। प्रथम खण्ड में (पृ.३६ से ६६) स्वतःप्रामाण्यवादनिषेधप्रकरण में यह तथ्य कहा जा 30 चुका है। जब प्रवृत्तिसामर्थ्य से ही अव्यभिचारित्व ज्ञात होता है तब यही कहो कि प्रवृत्तिसामर्थ्य
ही अव्यभिचारित्व है। यह प्रवृत्तिसामर्थ्यरूप विज्ञान का अव्यभिचारित्व, विषय की उपलब्धि से जब ज्ञात होगा तब क्या वह विज्ञानावभासित विषय की प्राप्ति से ज्ञात होगा या Bविज्ञान में अभासित
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