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खण्ड - ४, गाथा - १
तेषाम् ‘अत्यासन्नाऽप्रकाशकत्वाद्' इति हेतुरसिद्ध:, तेषां प्रत्यक्षादिप्रमाणाऽविषयत्वेन सद्भावाऽसिद्धेरिति प्रतिपादनात्। तदसिद्धतादिदोषविकलादतो हेतोरप्राप्तार्थ- प्रकाशकत्वं चक्षुषः सिद्धम् इति 'रूवं पुण पासइ अपुट्ठे तु' (आ.नि. ५) इति न युक्तिविकलं वचः । तदेवमिन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नत्वं प्रत्यक्षस्यासिद्धम् ।
यदपि ‘न त्वन्तःकरणेन्द्रियसम्बन्धस्य सुखादिज्ञानोत्पत्तावसम्भवेन तस्याऽव्यापकत्वाद् अभिधानम्' (२२०-५) इति तदप्यसम्बद्धम् ; यथा हीन्द्रियार्थसंनिकर्षो यथोक्तन्यायेन रूप ( ? प ) ज्ञानोत्पत्तौ न सम्भवीति 5 न प्रत्यक्षलक्षणम् तथाऽन्तःकरणेन्द्रियसम्बन्धोऽपि, अन्तःकरणस्य परपरिकल्पितस्याऽसिद्धत्वात् तत्सम्बन्धस्य च दूरापास्तत्वात् । यथा चान्तःकरणस्याऽसिद्धिः तथा स्वनिर्णयं ज्ञानस्य साधयद्भिः प्रदर्शितम् (७३६ तः ७४-३)। यदपि ‘अव्यभिचारादिकार्यविशेषणोपादानमन्तरेण संनिकर्षस्य साधुत्वं ज्ञातुं न शक्यते' इति (२२१-५) अभिधानम् तदप्यसङ्गतम्, परपक्षेऽव्यभिचारादिधर्मोपेतस्य ज्ञानकार्यस्यैवाऽसिद्धेः कथं हो सकता है तो मतलब यह हुआ कि वह दूरस्थ शब्द अनुकूलवात से प्रेरित हो कर कर्णछिद्र को 10 प्राप्त होता है तभी श्रवणगोचर होता है । फिर भी यदि उस में दूरत्वादि का व्यवहार होता है तो भले हो किन्तु उतने मात्र से श्रोत्र को अप्राप्तप्रकाशक सिद्ध नहीं कर सकते हैं। जब इस प्रकार श्रोत्र में प्राप्तार्थप्रकाशकत्वव्याप्य अतिनिकटवर्त्तीअर्थप्रकाशकत्व निर्दोषतया सिद्ध है तब हमने जो पहले चक्षु में अप्राप्तार्थप्रकाशकत्व सिद्ध करने के लिये 'अतिनिकट अर्थअप्रकाशकत्व' ऐसा व्यतिरेकी हेतु का प्रयोग किया है वह कैसे गलत होगा ?
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यदि कहा जाय 'चक्षु तो 'नेत्ररश्मि' कहा गया है, वह तो अतिनिकट अर्थ का अप्रकाशक नहीं, प्रकाशक ही है, अत एव चक्षु में अतिनिकटअर्थ का अप्रकाशकत्व हेतु असिद्ध ठहरेगा ।' तो यह गलत है क्योंकि नेत्ररश्मि तो प्रत्यक्षादिप्रमाण के गोचर न होने से उन की सत्ता ही असिद्ध है यह पहले सिद्ध किया जा चुका है । सारांश, असिद्धि आदिदोषमुक्त 'अतिनिकट अर्थ अप्रकाशकत्व' व्यतिरेकी हेतु से चक्षु में अप्राप्तार्थप्रकाशकत्व साध्य निर्बाध सिद्ध होता है, अत एव 'रूवं पुण पास 20 अपुट्टं तु' यह आ॰ नियुक्तिकार - वचन युक्तिशून्य नहीं है। इस प्रकार प्रत्यक्ष का 'इन्द्रियार्थसंनिकर्षजन्यत्व' लक्षण असिद्ध ठहरता है क्योंकि चाक्षुषप्रत्यक्ष में उस की अव्याप्ति है ।
[ मन - इन्द्रियसम्बन्ध के असम्भव का प्रतिपादन ]
नैयायिकने अपने प्र०लक्षण की चर्चा के प्रारम्भ में जो कुछ असंगत निरूपण किया है उस के प्रतिकार का प्रारम्भ करते हुए कहते हैं ऐसा जो कहा था ( २१०-१० ) सुखादिज्ञान की उत्पत्ति 25 में मन और इन्द्रिय के सम्बन्ध का सम्भव न होने से वह व्यापकरूप में लक्षण नहीं बन सकता - वह निरर्थक । वस्तुगत तथ्य यह कि इन्द्रियार्थसंनिकर्ष ऊपर कथित युक्तिसंदर्भ से रूपज्ञानोत्पत्ति के प्रति सम्भव नहीं है अत एव वह जैसे 'लक्षण' नहीं हो सकता, उसी तरह अन्तःकरण-इन्द्रियसम्बन्ध भी 'लक्षण' नही हो सकता, क्योंकि न्यायमतकल्पित मन ( = अन्तःकरण) की सत्ता ही असिद्ध है फिर उस के सम्बन्ध की बात ही कहाँ ? ज्ञान की स्वप्रकाशकता की सिद्धि के पूर्वोक्त (७३-२२ 30 तः ७४-१६) प्रकरण में मन की असिद्धि कैसे है यह कहा जा चुका है।
यह जो कहा था (२२१-२५)
फलभूत प्रत्यक्ष के अव्यभिचार आदि विशेषणों के प्रयोग के
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