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________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ यश्च बाणादेरागतस्य ग्रहणेऽपि दूरादिव्यवहारं प्रतिपद्यते पर: स कथं तत एव त्वदीयं साध्यं प्रतिपद्येत ? यदि च स्वोत्पत्तिदेशस्थ एव शब्दः श्रोत्रेण गृह्यते नागतः तर्हि कथमनुवाते शब्दस्य तद्देशोत्पत्तिकस्यैव श्रवणम् प्रतिवातेऽश्रवणम् मन्दवाते मनाक् श्रवणं भवेत् ? न च प्रतिकूलवातेन शब्दस्य नाशितत्वात् श्रोत्रस्य वाभिहतत्वात् न श्रवणम्, शब्दविनाशे 5 अनुकूलवातस्थस्यापि तदश्रवणप्रसक्तेः, शब्दस्य विनष्टत्वात्, व्यवहितदेशस्थस्य तस्य श्रोत्राभिघातहेतुत्वानुपपत्तेः, अन्यथा भस्त्रादिव्यवस्थितस्यापि तस्य तदुपघातकत्वं स्यात्। अनुकूलवातेन तस्य तं प्रति प्रेरणात् तेन तच्छ्रवणे 'प्राप्तः शब्दः श्रूयते' इति प्राप्तम्। तथापि तत्र दूरादिव्यवहारे न श्रोत्रमप्राप्तप्रकाशकमतः सिध्यतीति कथं न व्यतिरेकी हेतु: ? न च 'चक्षुः'शब्देन नायनरश्म्यभिधानादत्यासन्नप्रकाशकत्वाच्च जैन :- यदि इस प्रकार परकीय पक्ष के द्वारा स्वमतसिद्धि करना चाहेंगे तो नास्तिक चार्वाकवादी 10 कह सकेगा - हमारे मत में अनुमान प्रमाण एवं सामान्यतत्त्व भले न हो, अन्यमतसिद्ध अनुमान के द्वारा हम ज्ञान के प्रामाण्य-अप्रामाण्य और सामान्यतत्त्व की व्यवस्था कर लेंगे। सांख्यवादी भी कहेगा कि हमारे सत्कार्यवाद में उत्पत्ति एवं अनित्यत्व आदि मान्य न हो, किन्तु अन्यमत सिद्ध उत्पत्ति आदि से हम सुखादि में - सुखादि अचेतन हैं क्योंकि उत्पत्तिशील एवं अनित्य है - इस प्रकार सिद्धि कर लेंगे। इस प्रकार बौद्धमतमान्य अनुमान प्रमाण एवं अनित्यत्व आदि के द्वारा चार्वाक एवं 15 सांख्यवादी अपने अपने दार्शनिक मत की सिद्धि कर सकते हैं - क्या बौद्ध इस को मान्य करेगा ? यदि नहीं, तो अन्यमत सिद्ध निराकारज्ञानवाद के द्वारा आप कैसे श्रोत्र में अप्राप्तार्थप्रकाशकत्व की सिद्धि कर सकेंगे ? दूसरी बात यह है कि जब अन्यमतवादीयों को यह मान्य है कि दूर से बाण जब अपने पास पहुँचता है (प्राप्त होता है) तब वह प्रात होने पर भी 'दूर से आया-नजदीक से आया' - ऐसा 20 व्यवहार तो होता ही है। तब दूसरे मतवादी सिर्फ दूरादिव्यवहार के थोथे आलम्बन से अप्राप्तार्थप्रकाशकत्व का शब्द में स्वीकार कैसे करेगें ? यह भी सोचिये कि शब्द अपने उत्पत्ति देश में रहा हुआ ही (यानी अप्राप्तदशा में ही) गृहीत होता हो न कि कर्ण-छिद्र में आया हुआ; तो अपने उत्पत्तिदेश में ही रहा हुआ शब्द 'अनुकूल पवन हो तब सुनाई दे, प्रतिकूल दिशा का पवन हो तब न सुनाई दे एवं मन्द मन्द पवन दशा में मन्द 25 मन्द सुनाई दे' ऐसा कैसे हो सकता है ? यदि कहा जाय- प्रतिकूल दिशा के वात से शब्द का नाश हो जाता है अथवा कर्ण को अभिघात पहँचता है इस लिये शब्द नहीं सुनाई हेता - तो प्रश्न है कि वही प्रतिकल वात जिसके लिये अनकल है उस को वह शब्द कैसे सुनाई देगा ? जब कि वह खुद ही विनष्ट हो गया है ? कर्ण के अभिघात की बात तो नितान्त गलत है क्योंकि अप्राप्त दूर रहा हुआ प्रतिकूलवातवाला शब्द दूरवर्ती मानव 30 के श्रोत्र के अभिघात का कारण हो ही नहीं सकता। अन्यथा यदि प्रतिकूलवातदशा में दूरस्थ अथवा नष्ट शब्द से कर्णोपघात सम्भव बने तो मशक (चर्मावरण) से आवृत शब्द से भी कर्ण को उपघात हो जायेगा। यदि कहें के अनुकूल वात से श्रोता की ओर प्रेरित दूरस्थ शब्द से श्रोता को श्रवण Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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