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खण्ड-४, गाथा-१
२९९ अग्नावनुष्णत्ववत्। अथ 'दूरे शब्दो निकटे शब्दः' इति प्रतीते: प्राप्तार्थाऽप्रकाशकम् प्राप्तार्थ-प्रकाशकं च श्रोत्रमिष्यते। न सदेतत्; यतः साकारज्ञानपक्षेऽनाकारज्ञानपक्षे वाऽयमभ्युपगम: ? इति वाच्यम् । न तावत् प्रथमः पक्षः शब्दाकारस्य ज्ञानगतस्यावभासे दूर-निकटव्यवहाराऽनुपपत्तेः, अन्यथा स्वसंवेदनाकारेऽपि तत्प्रसक्तिर्भवेदिति सर्वत्रासन्नदूरव्यवहारोऽघटमानक: स्यात् । अथाकाराधायकस्याऽऽसन्नादित्वात् तद्व्यवहारः, तर्हि परपक्षेऽप्येतदुत्तरं समानं भवेद् इति किं तत्प्रतिक्षेपः ? शक्यं हि परेणाप्येवमभिधातुम्- कर्ण- 5 शष्कुल्यनुप्रविष्टस्य शब्दस्य ग्रहणेऽपि तत्प्रथमकारणस्य दूरत्वाद् दूरव्यवहारो विपर्ययत्वाच्च विपर्यय इति। द्वितीयपक्षस्त्वयुक्तः सौगतस्याऽनभिमतत्वात्। ____ अथ परापेक्षयाऽप्राप्तार्थप्रकाशकं श्रोत्रमित्यभिधीयते दूरादिव्यवहारात् तद्विषये चक्षुर्वत्। न, एवं परसिद्धनानुमानेन प्रमाणेतरसामान्यव्यवस्थादेः चार्वाकस्योत्पत्त्यनित्यत्वादिना सुखादेरचेतनत्वप्रसाधनं सांख्यस्य चाऽनिषिद्धं भवेत्, बौद्धाभ्युपगतेनानुमानेनोत्पत्त्यादिना च तेनापि स्वाभिप्रेतसाध्यस्य साधयितुं शक्यत्वात्। 10
बौद्ध :- 'शब्द दूरवर्ती है, शब्द निकटवर्ती है' ऐसी प्रतीति सभी को होती है। इस से सिद्ध होगा कि श्रोत्र प्राप्तार्थ का अप्रकाशक और अप्राप्तार्थ का प्रकाशक है (प्राप्तार्थ का प्रकाशक हैयह अशुद्ध पाठ है।)
जैन :- यह कथन गलत है। कारण, दो प्रश्न अनुत्तर है। (१) उक्त प्रतीति साकारज्ञानपक्ष में स्वीकृत होगी या (२) निराकार ज्ञानपक्ष में ? आद्य पक्ष उचित नहीं है। साकार ज्ञान पक्ष में तो 15 शब्द ज्ञान का ही आकार है, आकार में तो दूरत्व-निकटत्व का व्यवहार संगत ही नहीं हो सकता। यदि फिर भी ज्ञानाकार में दूर-निकट व्यवहार को मान्य करेंगे तो सिर्फ शब्द में ही क्यों, ज्ञान का जो अपना संवेदनाकार है उस में भी दूर-निकट व्यवहार की आपत्ति आयेगी, फलतः बाह्य समस्त पदार्थों में दूर-निकट व्यवहार विलुप्त हो जायेगा, क्योंकि, ज्ञानाकार से ही वह व्यवहार सम्पन्न हो जायेगा।
बौद्ध :- ज्ञान का आकार बाह्यार्थसापेक्ष ही होता है, अतः आकार का मद्रक बाह्यार्थ दुर या 20 निकट होने पर ही ज्ञान में दूरादि आकार उद्भूत होता है, इस प्रकार दूर-निकट का व्यवहार बाह्यार्थ सापेक्ष ही होता है, अतः अप्राप्तार्थप्रकाशकत्व में कोई क्षति नहीं होगी।
जैन :- हमारे मत से प्राप्तार्थप्रकाशकत्व मानने पर भी इसी तरह समान उत्तर प्रस्तुत है - फिर प्राप्तार्थप्रकाशकत्व का निरसन कैसे हो सकता है ? सुनिये - हम भी कह सकते हैं, शब्द
कर्णविवर में प्राप्त होकर प्रकाशित होता है तब उस शब्द का जो सर्वप्रथम कारणभूत शब्द 25 है वह दूर या निकट उत्पन्न होने पर प्राप्त शब्द में भी दूरत्व, निकटत्व का व्यवहार युक्तिसंगत ही है। दूसरा जो निराकार ज्ञानपक्ष है वह तो बौद्धों को भी स्वीकृत नहीं है, अतः उस पक्ष में दूरत्व निकटत्व का व्यवहार संगत हो नहीं सकता।
[अन्यमतावलम्ब से अप्राप्तार्थप्रकाशकत्व साधन अनुचित ] बौद्ध :- निराकारज्ञान पक्ष यद्यपि हमें अमान्य है, फिर भी परकीय पक्ष के आलम्बन से हम 30 कहते हैं कि श्रोत्र अप्राप्तार्थप्रकाशक है क्योंकि शब्द ज्ञानाकाररूप नहीं है। एवं शब्द में निरुपचरित दूरादिव्यवहार भी चक्षु के विषय की तरह होता है।
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