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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२
भवेत् ? अथ साध्यनिवृत्तौ नियमेन यतः साधनं निवर्त्तते स वैधHदृष्टान्तः । जीवच्छरीरस्य सात्मकत्वे साध्ये घट इव आत्मशरीरसंयोगविशेषे सात्मकत्वे निवर्तमाने नियमेन ततः प्राणादिमत्त्वनिवृत्तेः। न च श्रोत्रादेरप्राप्तार्थप्रकाशकत्वे निवर्तमानेऽत्यासन्नार्थाऽप्रकाशकत्वं नियमेन व्यावर्त्तते चक्षुष इव तस्याऽप्यत्या
सन्नार्थाऽप्रकाशकत्वात् । ततो नायं व्यतिरेकी हेतुः । न, कर्णशष्कुलीप्रविष्टमशकादिशब्दस्य तेन प्रकाशनात् । 5 स्पर्शनादौ त्वविवाद एव ।
"चक्षुः-श्रोत्र-मनसामप्राप्तार्थकारित्वम्' ( ) इति वचनादप्राप्तार्थप्रकाशकं श्रोत्रमिति न साध्यनिवृत्ती साधननिवृत्तिस्तत इति नायं व्यतिरेकी हेतुरिति सौगतः, यथा 'सर्वगतात्मपक्षे सात्मकं जीवच्छरीरं प्राणादिमत्त्वात्' इति हेतुः।” न, अप्राप्तकारित्वे श्रोत्रस्य चक्षुष इवात्यासन्नविषयप्रकाशकत्वं न स्यादिति मश
कादिशब्दस्य प्राप्तस्य प्रत्यक्षत: प्रकाशकत्वेन प्रतीयमानस्याऽप्राप्तार्थप्रकाशकत्वं तस्याऽध्यक्षबाधितम् 10 लगाते हैं तो वह अतिनिकट होने पर भी नहीं दिखता। यदि इन द्रव्यों का प्रकाशन चक्षु से होता
तो उन को जानने के लिये न तो दर्पण जरूरी होता, न तो उस को जानने के लिये अन्य किसी के निर्देश की जरूरत रहती।।
नैयायिक :- वैधर्म्य (व्यतिरेकी) दृष्टान्त वही हो सकता है जहाँ साध्य के न रहने पर हेतु भी अवश्य न रहे। जैसे, जीवन्त देह में सात्मकत्व सिद्ध करते हैं तब वैधर्म्य दृष्टान्त घट में से 15 जीव-शरीर संयोगविशेषरूप सात्मकत्व साध्य न रहने पर प्राणादिमत्त्व हेतु भी वहाँ अवश्य नहीं रहता
है। श्रोत्रादि में ऐसा नहीं है कि अप्राप्तार्थप्रकाशकत्व साध्य के न रहने पर नियमतः वहाँ अतिनिकट अर्थ अप्रकाशकत्व की भी व्यावृत्ति हो। मतलब चक्षु की तरह श्रोत्र भी अतिनिकट अर्थ का अप्रकाशक होता है। सारांश, अतिनिकटवर्ती अर्थ अप्रकाशकत्व हेतु को व्यतिरेकी हेतु नहीं कहा जा सकता।
जैन :- यह कथन गलत है। कर्ण के छिद्र में प्रविष्ट मच्छर की गुनगुनाहट का ध्वनि जो अतिनिकट 20 है उस का प्रकाशन श्रोत्र से होता ही है, नहीं होता ऐसा नहीं। अतः श्रोत्र के दृष्टान्त में साध्य की
(अप्राप्तार्थप्रकाशकत्व की) निवृत्ति के साथ अतिनिकटवर्तीअर्थअप्रकाशकत्व की व्यावृत्ति भी वहाँ नियमतः है।) अन्य स्पर्शनादि तीन इन्द्रियों में तो साध्यनिवृत्ति के साथ साधन की निवृत्ति निर्विवाद ही है।
[श्रोत्रेन्द्रिय अप्राप्तार्थप्रकाशकत्व-वादी बौद्धमत प्रतिक्षेप ] बौद्धवादी :- चक्षु-श्रोत्र और मन के अप्राप्तार्थकारित्वप्रतिपादक हमारे शास्त्रवचन से सिद्ध है 25 कि श्रोत्रेन्द्रिय अप्राप्तार्थप्रकाशक है। अत एव श्रोत्र में 'अप्राप्तार्थप्रकाशकत्व' साध्य की निवृत्ति के द्वारा
अत्यासन्नार्थाप्रकाशकत्वरूप साधन की निवृत्ति पूर्वोक्त अनुमान से सिद्ध न होने पर व्यतिरेकी हेतुप्रयोग भी अयोग्य है। जैसे आत्मा के विभुपरिमाणवादी के पक्ष में जीवंत शरीरमें सात्मकत्वसाधक प्राणादिमत्त्व हेतु व्यतिरेकी नहीं है। कारण, आत्मा व्यापक होने से साध्य की निवृत्ति ही अशक्य है।
जैन :- नहीं नहीं, श्रोत्र को अप्राप्यकारि मानेंगे तो चक्षु की तरह वह भी अतिनिकटवर्तीविषय ॐ का प्रकाशक नहीं हो पायेगा। प्रत्यक्ष से यह सिद्ध है कि कर्णछिद्र में अतिनिकटवर्ती मच्छर का ध्वनि
श्रोत्र से स्पष्ट सुनाई देता है, अतः श्रोत्र से अप्राप्तार्थप्रकाशकत्व प्रत्यक्ष से बाधित है जैसे अग्नि में अनुष्णत्व।
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