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________________ खण्ड-४, गाथा-१ २९७ तयोस्तादात्म्यमभ्युपगन्तव्यम् अन्यथाऽभावस्याध्यक्षप्रमाणग्राह्यता न भवेत्। तदेवं समवायाऽसिद्धेर्नाक्षस्य रूपेण सम्बन्ध इति न तेन तस्य ग्रहणं परपक्षे भवेत् । इति 'चक्षुषो घटेन संयोग एव युतसिद्धत्वात्, द्रव्यसमवेतानां गुणादीनां संयुक्तसमवाय एव' ( ) इत्यादि षोढासंनिकर्षप्रतिपादनमयुक्तम् संयोग-समवायविशेषणविशेष्यभावसम्बन्धानामभावेन तदनुपपत्तेः । संयोगादेश्चाभावः प्रतिपादित एव (प्र. खंडे पृ०४६०) यथावसरमिति न पुनः प्रतिपाद्यते। ____ अथ यथाऽस्माकं चक्षुषः प्राप्तार्थप्रकाशकत्वं प्रमाणाभावाद् न सिद्धं तथा भवतोऽप्यप्राप्तार्थप्रकाशकत्वं तस्य तत एव न सिद्धमिति, कथं 'रूवं पुण पासइ अपुढे तु' (आव.नि.गा.५) इत्यभिधानं युक्तिसङ्गतम् ? न, तस्याऽप्राप्तार्थप्रकाशने अनुमानसद्भावात्। तथाहि- अप्राप्तार्थप्रकाशकं चक्षुः अत्यासन्नार्थाऽप्रकाशकत्वात्; यत् पुनः प्राप्तार्थप्रकाशकं तदत्यासन्नप्रकाशकमुपलब्धम् यथा श्रोत्रादि, अत्यासन्नार्थाप्रकाशकं च चक्षुः, तस्मादप्राप्तार्थप्रकाशकमिति व्यतिरेकी हेतुः। न चाऽयमसिद्धो हेतुः, गोलकस्थस्य कामलादेः 10 पक्ष्मपुटगतस्य चाञ्जनादेस्तेनाऽप्रकाशनात्। कथमन्यथा दर्पणादेः परोपदेशस्य वा तत्प्रतिपत्त्यर्थमुपादानं से अनवस्था दोष लगेगा। आखिर मानना पडेगा कि भाव और अभाव का कथंचित् तादात्म्य ही है जिस से नये नये सम्बन्धों की झंझट खडी न हो। कथंचित् तादात्म्य के विना प्रत्यक्ष प्रमाण से अभाव का ग्रहण शक्य नहीं है क्योंकि वि.वि. भाव या समवाय सम्बन्ध सिद्ध नहीं है। समवाय असिद्ध होने के कारण, समवाय के द्वारा इन्द्रिय (चक्षु) का रूप के साथ सम्बन्ध न घटने से न्यायमत 15 में इन्द्रिय द्वारा अभाव का प्रत्यक्ष हो नहीं पायेगा। अत एव, जो संनिकर्ष के छः प्रकार - चक्षु और घट पृथसिद्ध होने से संयोग संनिकर्ष और द्रव्यनिष्ठ गुणादि के साथ संयुक्तसमवाय संनिकर्ष...इत्यादि प्रतिपादन संगत नहीं है, क्यों कि अभाव के साथ संयोग या समवाय या वि० वि० भाव एक भी सम्बन्ध घटता नहीं है। संयोग आदि क्यों नहीं घटता इस बात का निरूपण पहले खंड में (४६०१८) अवसरानुकुल कह दिया है इसलिये यहाँ उस की पुनरुक्ति नहीं की जाती। 20 [चक्षु में अप्राप्तार्थप्रकाशकत्वसाधक व्यतिरेकी हेतु ] नैयायिक :- हमारे मत में मान लो कि जैसे चक्षु का प्राप्तार्थप्रकाशकत्व प्रमाण के विरह में असिद्ध है, उसी तरह जैनों के मत में चक्षु का अप्राप्तार्थप्रकाशकत्व भी प्रमाणाभाव के कारण असिद्ध ही है। तो आप के आचार्य (भद्रबाहुस्वामी) का ‘अस्पृष्ट (अप्राप्त) ही रूप को देखता है' ऐसा वचन (आवश्यक-नियुक्तिग्रन्थ वचन) कैसे युक्तिसंगत होगा ? 25 जैन :- प्रश्न ठीक नहीं है, क्योंकि हमारे मत में चक्षु का अप्राप्तार्थप्रकाशकत्व का साधक अनुमान मौजुद है। देखिये - 'चक्षु अप्राप्तार्थ का प्रकाशक है क्योंकि अतिनिकटवर्ती अर्थ का अप्रकाशक है। यहाँ व्यतिरेकी उदाहरण है श्रोत्र और व्यतिरेकव्याप्ति ऐसी है - जो अप्राप्तार्थप्रकाशक नहीं होता (यानी प्राप्तार्थप्रकाशक होता है) वह अतिनिकटवर्ती अर्थ का प्रकाशक होता है जैसे श्रोत्रादि । चक्षु तो अतिनिकटवर्ती अर्थ का प्रकाशक नहीं होती अत एव प्राप्तार्थप्रकाशक भी नहीं होती। यानी 30 अप्राप्तार्थप्रकाशक होती है। हेतु यहाँ असिद्ध नहीं है, चक्षुगोलक में यदि कामलादि आवरण रहता है तो वह अतिनिकट होने पर भी दिखता नहीं है। तथा नेत्र की पांपणों में यदि अञ्जनादि द्रव्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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