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________________ खण्ड-४, गाथा-१ २९१ तदभावेऽपि रूपदर्शनसद्भावात् तस्य तत्प्रकाशकत्वाऽसिद्धेः। अथ तस्मिन् सति कदाचित् कस्यचित् रूपदर्शनात् तस्य तत्प्रदर्शकत्वं तर्हि नक्तंचराणां सतमसे रूपदर्शनात् तदभावे च तदभावात् हेतुफलभावस्य सर्वत्र तन्निबन्धनत्वात् तमोऽपि रूपप्रकाशकत्वात् प्रदीपवत् तैजसं भवेत् । अन्यथा हेतोरनेनैव व्यभिचारः स्यात्। [ प्रसङ्गात् तमसः तेजोऽभावरूपतानिरसनम् ] 'आलोकाभाव एव तमः' इति चेत् ? न, आलोकस्यापि तमोऽभावरूपताप्रसक्तेः । 'आलोकस्य तरतमादिरूपतयोपलम्भात् नाभावरूपता' इति चेत् ? न, तमस्यप्यस्य समानत्वात्। यथा चालोकः प्रतिभासविषयः तथा तमोऽपि तद्विषयः । न चालोकप्रतिभासाभाव एव तमाप्रतिभासः; इतरत्राप्यस्य समानत्वात् । न च चक्षुर्व्यापाराभावेऽपि तत्प्रतिभाससंवेदनादालोकप्रतिभासाभाव एव तमःप्रतिभासः, प्रतिनियतसामग्रीप्रभवविज्ञानावभासित्वात् प्रतिनियतभावानां, तमसस्तदतत्प्रभवविज्ञानावभासित्वात्, आलोकस्य च तद्विपर्ययात्। 10 यद्वा आलोकस्याप्यचक्षुर्जे सत्यस्वप्नज्ञाने प्रतिभासनात् तमोज्ञानाभावरूपता भवेत् । अथालोकस्य रूपप्रतिपत्ती जैन :- तो गाढ अन्धकार के रहते हुए किसी किसी को - उलुक आदि निशाचरों को- रूपदर्शन होता है, अन्धकार के न रहने पर (प्रकाश में) वह नहीं होता है, इस प्रकार कारण-कार्यभाव सर्वत्र उक्त अन्वय-व्यतिरेक पर ही अलवम्बित होने से अब अन्धकार को भी रूप का प्रदर्शक मानना पडेगा एवं रूपप्रकाशकत्व के जरिये प्रदीप की तरह उस को तैजस भी मानना पडेगा। अगर अन्धकार में 15 रूपप्रकाशकत्व मानेंगे और तैजसत्व नहीं मानेंगे तो फिर अन्धकार में ही रूपप्रकाशकत्व हेतु तैजसत्व का व्यभिचारी हो जायेगा। [तमस् में तेजअभावरूपता का निरसन ] नैयायिक :- तमस् में तैजसत्व नहीं रहता क्योंकि वह तो प्रकाशाभावरूप है। जैन :- नहीं, तेजोद्रव्य में तमसअभावरूपता मानने की विपदा होगी। नैयायिक :- तरतमभाव द्रव्य में ही होता है, प्रकाश में मंद-तीव्रभाव होता है, अभाव में कभी तरतमभाव नहीं होता अत एव प्रकाश अभावस्वरूप नहीं होता। ___ जैन :- नहीं, तमस् में भी तीव्र-मन्दतारूप तरतमता होती है अत एव तमस् भी अभावरूप नहीं हो सकता। प्रकाश जैसे निरपेक्ष प्रतीति का विषय होता है, तमस् भी तथा निरपेक्षप्रतीति का विषय होता है। ऐसा नहीं है कि प्रकाशप्रतिभास का अभाव ही तमःप्रतिभासरूप हो, उस से उल्टी कल्पना 25 भी शक्य है कि तमस्प्रतिभास का अभाव ही प्रकाशप्रतिभासरूप हो। कल्पना दोनों ओर समान है। यदि कहा जाय – 'नेत्र की सक्रियता के विरह में भी बन्द आँखों से तमस का प्रतिभास संविदित होता है। इस का अर्थ यह हुआ कि प्रकाश के प्रतिभास का अभाव ही तमस है।' - यह गलत है; भावों का अवभास विचित्र होता है। कुछ नियत प्रकार के भावों का प्रतिभास कुछ नियत सामग्रीजन्यविज्ञान से ही होता है, जैसे चाँद और सितारों का अवभास प्रकाश का अभाव एवं तमस् का सद्भाव होने 30 पर उत्पन्न होने वाले विज्ञान से ही होता है। अत एव मान सकते हैं कि - तमस का अवभास, आँख चाहे खुली रहे या बन्द रहे (यानी चक्षु सक्रिय हो या निष्क्रिय) दोनों अवस्था में उत्पन्न होनेवाले विज्ञान से ही होता है न कि बन्द नेत्र से। आलोक के लिये उस से उलटा है। मतलब चक्षु खुले होने पर 20 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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