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________________ २९० सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ अथ प्रदीपे सति यद् दर्शनं तत् तदभावे न भवति, यत्तु तदभावे भवति न तत् तत्रापि तत्सदृशम् । न चान्यस्यापि व्यभिचारे अन्यस्यासौ, अतिप्रसङ्गात्। असदेतत् – यतो यादृशमेव रूपदर्शनमालोके, संस्कृतचक्षुषां तदभावेऽपि तादृशमेव, तद्भेदानवधारणात् । तथाहि - तद्भेदकल्पने न किञ्चित् कस्यचिद् वस्तुनः सदृशमिति सौगतमतानुप्रवेश: स्यात् । रूप-प्रदीपयोश्च सहोत्पन्नयोर्युगपद्दर्शने प्रदीपवत् रूपस्यापि 5 प्रदीपप्रकाशकत्वात् रूपं तैजसं भवेत्, अन्यथा न प्रदीपोऽपि तैजसः स्यात्, तज्जनकत्वाऽविशेषात् तयोः । न चान्यदा प्रदीपस्यैव रूपप्रकाशकत्वोपलब्धेः स एव तदापि प्रकाशकः, अन्यदाऽप्यञ्जनादिसंस्कृतचक्षुषां [प्रदीप में रूपप्रकाशनव्यभिचार का वारण निष्कल ] नैयायिक :- प्रदीप की उपस्थिति में जो रूपदर्शन होता है वह कभी भी प्रदीप के विरह में नहीं होता - इस प्रकार प्रदीप और स्वोपस्थितिकालीनरूपदर्शन का अन्वय-व्यतिरेक सुव्यवस्थित है। 10 प्रदीप की अनुपस्थिति में जो मार्जारादि या अञ्जनसंस्कृतचक्षुष्मान् पुरुष को रूपदर्शन होता है वह भले ही होता हो किन्तु वह प्रदीपकालीन रूपदर्शन से सर्वथा विजातीय है। उस के प्रति प्रदीपकारणता का व्यतिरेक यानी व्यभिचार भले ही हो उस का मतलब यह नहीं है कि उस से विजातीय रूपदर्शन (प्रदीपकालीन रूपदर्शन) के प्रति भी प्रदीप व्यभिचारी हो। यदि ऐसा मानेंगे तो धूम के प्रति व्यभिचारी अग्नि को पाकादि के प्रति भी व्यभिचारी मानने का अतिप्रसंग होगा। 15 जैन :- यह कथन गलत है। आपने जो रूपदर्शनों में वैजात्य का प्रदर्शन किया वह अयुक्त है। जैसा रूपदर्शन प्रदीप की उपस्थिति में होता है वैसा ही रूपदर्शन प्रदीप के विरह में अञ्जनसंस्कृतचक्षुवाले पुरुष को भी होता है। उस पुरुष को कभी ऐसा भेद प्रतीत नहीं होता कि मुझे जब अञ्जनप्रयोग से दर्शन होता है वह अञ्जन के विरह में प्रदीप से होनेवाले दर्शन से तिलमात्र भी विभिन्न है। फिर भी यदि आप भेदकल्पना जबरन करेंगे तो, कोई भी चीज दूसरी चीज से लेशमात्र 20 भी समान नहीं माननेवाले बौद्धमत में ही आप को शरण लेना होगा। (बौद्ध मत में सामान्य का सर्वथा निषेध, और वस्तु-वस्तु में सर्वथा भेद का स्वीकार, किया गया है।) [ प्रदीप से रूपदर्शन या रूप से प्रदीपदर्शन ? ] दूसरी बात यह है कि प्रदीप और जलादि का रूप जब समकाल उत्पन्न होंगे तब प्रदीप से रूपदर्शन मानेंगे तो रूप से प्रदीप का दर्शन भी मानना पडेगा। यहाँ प्रदीप (के रूप) का प्रदर्शकत्व 25 होने के कारण रूप में भी तैजसत्व मानना पडेगा। यदि प्रदीपरूप का प्रकाशकत्व होने पर भी जलादि के रूप को तैजस नहीं मानेंगे तो प्रदीप को भी तैजस कैसे माना जाय, जब कि रूपप्रदर्शकत्व तो दोनों में साधारण है ? यदि कहा जाय - 'जब दोनों सहोत्पन्न नहीं होते तब तो सिर्फ प्रदीप में ही रूपप्रदर्शकत्व उपलब्ध होता है, न कि रूप में। अत एव सहोत्पत्ति दशा में भी प्रदीप ही रूप का प्रकाशक मानना होगा' – तो यह गलत है, क्योंकि असहोत्पत्ति दशा में भी अञ्जनादिसंस्कृतचक्षुवाले 30 को प्रदीप के विरह में भी रूप का दर्शन होता है, अतः प्रदीप में रूपप्रकाशकत्व की सिद्धि दुरापास्त है। नैयायिक :- किसी किसी को कभी कभी प्रदीप के सद्भाव में ही रूप का दर्शन होता है यह सुविदित है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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