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________________ २८९ 10 खण्ड-४, गाथा-१ इन्द्रियान्तरपरिकल्पनावैफल्यप्रसक्तेः। ___ रूपप्रकाशकत्वं च रूपज्ञानजनकत्वम् तच्च नीलरूपेऽपि विद्यते अन्यथा ‘अर्थवत् प्रमाणम्' (वात्स्या. भा. पृ.१) इत्यत्रार्थसहकारित्वं तस्य न स्यादिति तेन व्यभिचारः। अथ द्रव्यत्वे सति करणस्य रूपादीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वादिति विशेषणाद् न सम्बन्ध-रूपाभ्यामनेकान्तः । ननु यथा सम्बन्धादेरद्रव्यादेरप्यतैजसस्य रूपज्ञानजननं तथा चक्षुषोऽपि किं न स्यात् ? न च ‘अदर्शनात्' इत्युत्तरम्, असर्वदर्शिदर्शन- 5 निवृत्ते वाऽनिवर्तकत्वात् । प्रदीपवदिति दृष्टान्तस्यापि रूपप्रकाशकत्वाऽसिद्धेः साधनविकलता दृष्टान्तस्य । न च प्रदीपे सति प्रतिनियतप्राणिनां रूपदर्शनसम्भवात् तस्य रूपप्रकाशकत्वम्, अञ्जनादिसंस्कृतचक्षुषां तदभावेऽपि रूपदर्शनसद्भावात्। न च यदन्तरेणाऽपि यद् भवति तत् तत्कार्यम् इतरत् तत्कारणम्, अन्वयव्यतिरेकनिबन्धनत्वात् तद्भावस्य। रूपेण की जानेवाली कल्पना निरर्थक ठहरेगी। [ नीलादिरूप में रूपप्रकाशकत्वहेतु साध्यद्रोही ? ] रूपप्रकाशकत्व हेतु का नीलरूपादि में भी व्यभिचार प्रसक्त है - रूपप्रकाशकत्व का अर्थ होगा रूपज्ञानजनकत्व । नीलादि रूप भी स्वविषयकज्ञान का विषयविधया जनक है, यदि उसे जनक नहीं मानेंगे तो 'अर्थवत् प्रमाणम्' इस वा०भाष्य के द्वारा जो अर्थ का ज्ञान के प्रति सहकारित्व दिखाया गया है उस का लोप प्रसक्त होगा। नीलादिरूप में तैजसत्व तो नहीं है - अतः व्यभिचार स्पष्ट है। 15 यदि रूप में ऐसा व्यभिचार टालने के लिये- “हेतु में 'द्रव्यत्व' विशेषण जोड दिया जाय – मतलब, 'द्रव्य होते हुए चक्षुइन्द्रियरूप करण रूपादि के मध्य सिर्फ रूप का ही प्रकाश करता है' ऐसा विशेष हेतुप्रयोग किया जाय तो न तो चक्षु-रूप संनिकर्ष में व्यभिचार होगा, न तो नीलादिरूप में व्यभिचार होगा, क्योंकि संनिकर्ष (संयोग) या रूप एक भी द्रव्यात्मक नहीं है।” तो यहाँ भी प्रश्न है कि जब द्रव्यत्व एवं तैजसत्व के विरह में भी संनिकर्षादि से रूपज्ञान उत्पन्न हो सकता है तो तैजसत्व के 20 विना भी चक्षुद्रव्य से रूपज्ञान की उत्पत्ति क्यों नहीं हो सकती ? ऐसा उत्तर - 'तैजसत्व के विना भी रूप का प्रकाशन करने वाला अब तक कहीं देखा नहीं (उलटा, तैजसत्ववाला प्रदीप आदि ही रूप का प्रकाश करनेवाला दिखता है)' ठीक नहीं है क्योंकि असर्वदर्शी यानी अल्पज्ञ व्यक्ति को अतैजसद्रव्य से रूपप्रकाश का कार्य देखने को नहीं मिला उस का मतलब यह नहीं है कि कोई अतैजस रूपप्रकाश कार्य नहीं कर सकता। छद्मस्थों की दर्शननिवृत्ति भावनिवृत्ति की व्याप्य नहीं है। 25 नैयायिक का प्रदीप दृष्टान्त भी हेतुशून्य है क्योंकि प्रदीप के रहते हुए भी बहुतों को रूप का दर्शन नहीं होता, एवं प्रदीप के अभाव में भी किसी को रूपदर्शन होता है। यदि कहा जाय - अमुक नियत प्राणिवर्ग को प्रदीप के सद्भाव में (ही) रूपदर्शन होता है अत एव उस में रूपप्रकाशकत्व असिद्ध नहीं है - तो यह भी स्वीकार्य नहीं है क्योंकि सिद्धाञ्जन से लिप्त नेत्रवाले अञ्जनसिद्ध पुरुषों को प्रदीप के विरह में भी रूप का दर्शन होता है। कारण-कार्यभाव तो अन्वय-व्यतिरेक-मूलक 30 होता है। जो कार्य जिस के अभाव में भी होता है वह उस का कार्य और उस कार्य का वह कारण, ऐसा कभी मान्य नहीं हो सकता, क्योंकि यहाँ व्यतिरेक नहीं है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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