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________________ २८८ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - २ तथाहि— अबला-पारावत- बलीवर्दादीनां चक्षुषो धवल - लोहित - नील-रूपतयोष्णस्पर्शविकलतया चाध्यक्षतः प्रतिपत्तिः सिद्धैव । न च गोलकव्यतिरिक्तं चक्षुः तद्ग्राहकप्रमाणाभावात् सिद्धमित्याश्रयासिद्धः, स्वरूपासिद्धश्च ‘रूपस्यैव प्रकाशकत्वादि’ति हेतु:, अनैकान्तिकश्च तुहिनकर - करनिकरेण, तस्य रूपस्यैव प्रकाशकत्वेऽप्यतैजसत्वात् । न चास्यापि पक्षीकरणाददोषः, व्यभिचारविषयस्य पक्षीकरणादैकान्तिकत्वे सर्वत्रानैकान्तिक हेत्वभाव5 प्रसक्तेः । न चैवं जलानलयोर्विशेषगुणसङ्कराद् भेदः सिध्येत । न च तन्निकरान्तर्गतं तेजस्तत्रापि रूपप्रकाशकमिति न व्यभिचारः; प्रदीपेऽप्यन्यस्य तदन्तर्गतस्य तत्प्रकाशकस्य प्रकल्पनात् दृष्टान्तासिद्धिप्रसक्तेः । प्रत्यक्षबाधा उभयत्र । चक्षूरूपसम्बन्धेन रूपस्यैव प्रकाशकेन च व्यभिचारः । न चासौ रसादेरपि प्रकाशक : होगा, क्योंकि भास्वर के बदले अभास्वर रूप और उष्णस्पर्श के बदले समशीतोष्ण स्पर्शका आश्रय चक्षु का दर्शन सार्वजनिक है । उपरांत, स्त्री के नेत्र धवल रूपवाले, कबूतर के नेत्र रक्त रूपवाले, 10 वृषभ के नेत्र नीलरूपवाले, एवं उष्णस्पर्श से रहित, सभी को प्रत्यक्ष से दिखता है। यदि चक्षु को उक्तस्वरूप गोलकरूप न मान कर अन्य किसी प्रकार से मानेंगे तो उस प्रकार से उस का प्रदर्शक प्रमाण कोई भी न होने से उक्त अनुमान में आश्रयासिद्धि दोष तो होगा ही, साथ साथ स्वरूपासिद्धि दोष भी होगा, क्योंकि गोलक या गोलकव्यतिरिक्त द्रव्य में रूपमात्र का प्रकाशकत्व भी असिद्ध है । हेतु व्यभिचारी भी है क्योंकि चन्द्र के किरणवृन्द में तैजसत्व साध्य के विरह में भी रूपमात्र का 15 प्रकाशकत्व सिद्ध है । यदि कहें कि - 'चन्द्रकिरणों का भी हम पक्ष में अन्तर्भाव कर के तैजसत्व की सिद्धि उन में करेंगे।' तो यह नितान्त अनुचित है क्योंकि एक हेतु में एकान्तिकत्व यानी अव्यभिचार संगत करने के लिये व्यभिचारस्थल का पक्ष में अन्तर्भाव करेंगे तो सर्वत्र ऐसी पद्धति अपना लेने से व्यभिचार दोषमात्र का उच्छेद प्रसक्त होगा। फिर तो तैजसभिन्न जलादि द्रव्य में भी 'जल भी तैजस है शुक्लरूपवाला होने से' इस तरह अनुमान लगायेंगे, जब पृथ्वी आदि में वहाँ 20 व्यभिचार दिखायेंगे तो उस को पक्ष में अन्तर्भाव कर लेने से जल में तैजसत्व सिद्ध हो जायेगा; फलतः जल और अनल में रूपादि विशेष गुणों का सांकर्य हो जाने से भेद का छेद हो जायेगा । जलानलोभयरूप एक द्रव्य बचेगा । [ तैजसद्रव्य का अन्तर्भाव चन्द्रकिरण की तरह प्रदीप में ] यदि कहें कि 'चन्द्रकिरणों के अन्तर्गत जो तैजस द्रव्य होता है उसी से रूप का प्रकाश 25 होता है न कि चन्द्रकिरणों से, अतः वहाँ व्यभिचार होने का संभव नहीं तो ऐसा भी कहा जा सकता है कि प्रदीप ( दृष्टान्त) में भी जो अन्तर्गत तैजस द्रव्य रहता है वही रूप का प्रकाशक होता है, न कि प्रदीप । यदि यहाँ इष्टापत्ति कर लेंगे तो फिर प्रदीप में रूपप्रकाशकत्व हेतु के न रहने से दृष्टान्त असिद्धि दोष प्रसक्त होगा । यदि प्रदीप के संदर्भ में आप प्रत्यक्ष बाध दिखायेंगे तो चन्द्रकिरण के बारे में भी वह दिखाया जा सकेगा। दूसरी आपत्ति यह है नेत्र और रूप का संनिकर्ष रूपमात्र 30 का प्रकाशक है किन्तु वह तैजस नहीं है अतः हेतु व्यभिचारी संनिकर्ष तो रसादि का भी प्रकाशक होता है न कि रूपमात्र का यदि चक्षुरूप संनिकर्ष से रसादि का प्रकाशन हो जाय तो रसनादि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only बनेगा। यदि कहें कि चक्षु-रूप तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि अन्य इन्द्रियों की तत्तत्प्रत्यक्षकारणत्वेन - - www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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