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________________ २८७ खण्ड-४, गाथा-१ च तस्य तैजसत्वं परं प्रति सिद्धमिति तत्साधनविकलता तदपेक्षया दृष्टान्तदोषः। न च रश्मिवत्त्वाद् बिडाललोचनस्य तैजसत्वं सिद्धम्, मण्यादीनामपि तत्प्रसक्तेः । न च रश्मिवत्त्वाद् मण्यादीनामपि तैजसत्वम् मूलोष्णप्रभाया एव तैजसत्वात् अन्यथा तरुणतरुकिसलयानामपि तैजसत्वं स्यात्। न च नारीनयनानां तैजसत्वं सिद्धम्- इत्यसिद्धो हेतुः। न च रश्मिवत्त्वादेव तेषां तत् साध्यते, इतरेतराश्रयदोषप्रसक्तेः । सिद्धे भास्वरप्रभावत्त्वे तैजसत्वसिद्धिस्ततश्च भास्वरप्रभावत्त्वसिद्धिरिति कथं नेतरेतराश्रयदोषः ? 5 ____ अथ 'तेजसं चक्षुः रूपादीनां मध्ये रूपस्यैव प्रकाशकत्वात् प्रदीपवत्' (२८२-४) इत्यतोऽनुमानात् तैजसत्वसिद्धेर्नेतरेतराश्रयदोषः। नन्वत्र भास्वररूपोष्णस्पर्शतेजोद्रव्यसमवेतगोलकस्वभावं कार्यद्रव्यं यदि 'चक्षुः' शब्दवाच्यम् तस्य तैजसत्वसाधने अध्यक्षविरोधः, तद्विपरीतरूपस्पर्शाधारतयाऽध्यक्षता प्रतिपत्तेः । है वह व्यर्थ होगा, क्योंकि नेत्रत्व हेतु से ही आप के मतानुसार नारीनेत्र के किरणों की सिद्धि हो जायेगी। उपरांत, प्रत्यक्षबाधारूप दोष तो यहाँ तदवस्थ ही रहेगा, क्योंकि प्रत्यक्ष से वहाँ किरणाभाव 10 सिद्ध है। यदि नेत्रत्व को छोड कर ‘तैजसत्व' को हेतु करेंगे तो मार्जारनेत्र का दृष्टान्तरूप में प्रस्तुतीकरण व्यर्थ हो जायेगा, क्योंकि तब तो प्रदीपदृष्टान्त से ही आप को साध्यसिद्धि बन जायेगी (क्योंकि उस में तैजसत्व निर्विवाद सिद्ध है।) फिर भी ‘मार्जारनेत्र' का दृष्टान्त लेंगे तो वहाँ तैजसत्व हमारे मत में सिद्ध न होने से हमारे मत की अपेक्षा से 'साधनशून्यत्व' यह दृष्टान्तदोष प्रसक्त होगा। यदि मार्जारनेत्र में रश्मिवत्त्व हेतु से तैजसत्व सिद्ध करेंगे तो वह भी गलत है क्योंकि तब तो मणि 15 आदि में भी रश्मिवत्त्व होने से ‘तैजसत्व' की प्रसक्ति आयेगी। यदि कहें कि इष्टापत्ति है, हम रश्मिवत्त्व से मणि आदि में भी 'तैजसत्व' मान्य करेंगे - तो वह भी अनुचित है – क्योंकि तैजसत्व वहाँ मणि आदि में मानने पर मूल में उष्णप्रभा भी प्रसक्त होगी क्योंकि जो तैजस होते हैं वहाँ मूल से ही उष्णप्रभा होती है। यदि इस बात का इनकार करेंगे तो तरुण-कोमल वृक्ष किशलयों (ऐसी औषधियाँ जो कि चमकीली होती हैं) में भी तैजसत्व की प्रसक्ति होगी। 20 दूसरी बात यह है कि प्रदीप के दृष्टान्त में तैजसत्व होने पर भी नेत्रों में तैजसत्व असिद्ध होने से नारीनयनों में किरण का साधक तैजसत्व हेतु स्वरूपासिद्ध भी ठहरेगा। यदि नारीनयनों में 'रश्मिवत्त्व' हेतु से तैजसत्व की सिद्धि करेंगे तो (असिद्ध से असिद्ध का साधन-यह दोष तो होगा, उपरांत,) इतरेतराश्रय दोष भी प्राप्त होगा। नारी नयनों में भास्वर प्रभारूप किरण सिद्ध होंगे तभी तैजसत्व की सिद्धि होगी; और तैजसत्व की सिद्धि होने पर किरणों की सिद्धि होगी, इस प्रकार 25 अन्योन्याश्रय दोष क्यों नहीं आयेगा ? [चक्षु में तैजसत्वसाधक अनुमान का निरसन ] नैयायिक :- अन्योन्याश्रय दोष नहीं हो इस लिये तो हम दूसरा अनुमान प्रस्तुत करते आये हैं - चक्षु तैजस है क्योंकि द्रव्यनिष्ठ रूप-रसादि के मध्य सिर्फ रूप का ही प्रकाश करता है। (कुछ परिच्छेद के पूर्व में (पृ.२८२-पं.३०) यही अनुमान तैजसकिरण को साध्य बनाकर प्रस्तुत किया जा चुका है।) 30 जैन :- 'चक्षु' शब्द से आपको क्या अभिप्रेत है ? यदि भास्वर-रूप-उष्णस्पर्शवाले तैजस अवयवद्रव्य में समवेत गोलाकार कार्य (अवयवी) द्रव्य अभिप्रेत हो तो उस के तैजसत्व के साधन में प्रत्यक्षबाध Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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