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खण्ड-४, गाथा-१
२८३ सव्यपेक्षमर्थप्रकाशकं चक्षुष्ट्त्वात्, दिवा पुरुषचक्षुर्वद् इत्यस्यानुमानस्य रात्रौ तत्सत्त्वप्रतिपादकस्य भावात् । अथ वृषदंशादेश्चाक्षुषं तेजोऽस्तीत्यर्थसिद्धेर्न किञ्चिद् भास्करज्योतिषाऽनुद्भूतरूपेण प्रकल्पितेन- तर्हि मनुष्यादीनामपि तदस्ति इति किमनुद्भूतरूपेण बाह्यतेजसां कृत्यम् ? अथ यद् यथा दृश्यते तत् तथाऽभ्युपगम्यते इति मनुष्यादीनां नायनं सौर्यं च तेजो विज्ञानकारणं दृश्यते ततस्तथैव तत् कल्प्यते, क्षपायां मार्जारादे यनमेव दृश्यते अतस्तदेव तत्कारणं प्रकल्प्यते न सौर्यम्। भवेदेवं यदि तथादर्शनं 5 स्यात्, यावता यथा रात्रौ भास्करकराऽदर्शनं तथा दिवा चाक्षुषरश्म्यदर्शनम् यथा वा दिवा भास्करकरावभासनं तथा क्षपायां वृषदंशनेत्रालोकावलोकनम् । विशेषस्त्वयम् - एकदा भास्कररश्मयोऽन्यदा नायनास्तेऽनुमेया क्योंकि रात्रि में सूर्यकिरण की सत्ता का साधक कोई अनुमान नहीं है।
जैन :- अनुमान नहीं है यह कथन असत्य है। देखिये - घोर अन्धकार में मार्जार के नेत्र बाह्य प्रकाश से सहकृत हो कर अर्थप्रदर्शन करते हैं, क्योंकि नेत्रत्ववाले हैं, उदा. - दिन में जैसे 10 मनुष्यनेत्र। ऐसा अनुमान रात्रि में भी बाह्यप्रकाशात्मक गुप्त सूर्यकिरणों की सत्ता का प्रदर्शक है।
नैयायिक :- उक्त अनुमान के द्वारा मार्जार के नेत्र भी किरणोत्सर्गी ही हैं यह अर्थतः सिद्ध होता है। जब मार्जार के नेत्रकिरणों के द्वारा ही रात्रि में अर्थग्रहण शक्य बन जाता है तब रात्रि में गुप्तरूपवाले सूर्यकिरणों की कष्टप्रद कल्पना क्यों की जाय ?
जैन :- अच्छा, तो फिर दिन में भी मनुष्य के नेत्रकिरण आप के मत से सिद्ध है तो उस 15 वक्त प्रगटरूपवाले बाह्यसूर्यकिरणों की आवश्यकता क्यों मानी जाय ? ___ नैयायिक :- नियम है कि जो जैसा दिखता है वैसा उसे मान लिया जाता है। मनुष्य आदि के नेत्रकिरण और सूर्यकिरण मिल कर प्रत्यक्ष विज्ञान निपजाते हैं ऐसा दीखता है, अत एव दिन में सूर्यकिरण की भी आवश्यकता मानी जा सकती है। किन्तु रात्रि में तो सिर्फ मार्जार नेत्र के किरण का ही फल (प्रत्यक्ष) उपलब्ध होता है न कि सूर्यकिरणों का; अत एव रात्रि में मार्जारनेत्र-किरणों 20 को 'कारण' माना जाता है न कि सूर्यकिरणों को।
[मार्जारनेत्रकिरणवत् दिन में सूर्यकिरण मानने की विपदा ] जैन :- ऐसा तभी उचित होता यदि मार्जारनेत्रकिरण और सूर्यकिरण के बारे में आपने जैसा भेद दिखाया वैसा वास्तव में होता। हकिकत तो यह है कि रात्रि में जैसे सूर्यकिरणों का दर्शन नहीं होता तथैव दिन में चक्षुकिरणों का भी दर्शन कहाँ होता है ? (नैयायिक ने जो कहा था कि 25 जो जैसा दिखाई दे वैसा ही वह माना जाय - तो दिन में चक्षु के किरण न दिखने पर भी मानते हैं और रात को सूर्यकिरण न दिखने पर उन का इनकार कैसे करते हैं ?) दूसरी बात :- मार्जारनेत्र के किरण सिर्फ रात को ही दीखते हैं, और सूर्यकिरण सिर्फ दिन में ही दीखते हैं, तो फर्क इतना ही हुआ - दिन में जैसे आप नेत्र के किरणों का अनुमान करते हैं तो वैसे ही रात को सूर्यकिरणों का अनुमान क्यों नहीं हो सकता ?
नैयायिक :- तिमिरव्याप्त रजनीकाल में यदि सूर्यकिरण की सत्ता होगी तो रात्री को घूमनेवाले मार्जार आदि की तरह मनुष्यों को भी रूपप्रत्यक्ष होता रहेगा - इस अनिष्टप्रसंग से सिद्ध होता
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